मुवक्किलों को दी गई कानूनी सलाह पर वकीलों को समन नहीं भेज सकतीं जांच एजेंसियां: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में यह स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी जांच एजेंसी “किसी मामले में पेश हो रहे वकील को मामले का विवरण जानने के लिए सीधे तौर पर समन जारी नहीं कर सकती है।” चीफ जस्टिस बी. आर. गवई, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन. वी. अंजारिया की की पीठ ने इस कानूनी सवाल का जवाब “स्पष्ट ‘नहीं'” में दिया।

अदालत ने इस मुद्दे पर नए दिशानिर्देश तैयार करने से इनकार करते हुए, एक महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय स्थापित किया। इसके तहत, यदि वकील-मुवक्किल विशेषाधिकार (advocate-client privilege) के अपवादों का हवाला देते हुए किसी वकील को समन जारी किया भी जाता है, तो उसके लिए एक वरिष्ठ अधिकारी, जो पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) के पद से नीचे का न हो, की पूर्व लिखित स्वीकृति अनिवार्य होगी, जिसमें समन का कारण दर्ज होना चाहिए।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि कंपनियों में पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी के तौर पर काम करने वाले “इन-हाउस वकील” (In-house counsel) भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023 की धारा 132 के तहत वकील-मुवक्किल विशेषाधिकार के हकदार नहीं होंगे।

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यह फैसला स्वत: संज्ञान (Suo Motu) रिट याचिका (आपराधिक) संख्या 2, 2025 में आया, जिसे सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा “अत्यंत सार्वजनिक महत्व” के प्रश्न संदर्भित किए जाने के बाद शुरू किया गया था।

मामले की पृष्ठभूमि

यह पूरा मामला गुजरात के एक वकील द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका (SLP) से शुरू हुआ। अहमदाबाद के ओधव पुलिस स्टेशन में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), गुजरात मनी-लेंडर्स एक्ट और एससी/एसटी एक्ट के प्रावधानों के तहत एक एफआईआर दर्ज की गई थी। संबंधित वकील ने आरोपी के लिए नियमित जमानत याचिका दायर की, जिसे सेशंस जज ने मंजूर कर लिया।

इसके बाद, जांच अधिकारी (ACP, अहमदाबाद) ने वकील को BNSS की धारा 179 के तहत एक नोटिस जारी किया, जिसमें उन्हें “‘पूछताछ के बाद मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का सही विवरण जानने’ के लिए” पेश होने का निर्देश दिया गया।

वकील की चुनौती को हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनके असहयोग से जांच बाधित हो रही थी। जब यह मामला SLP में सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष आया, तो उन्होंने माना कि इस तरह का हस्तक्षेप “न्याय प्रशासन पर सीधा आघात” है और मामले को व्यापक निर्णय के लिए एक बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया।

बार की दलीलें

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) सहित विभिन्न बार संघों ने हस्तक्षेप किया।

  • बार की ओर से तर्क दिया गया कि यह समन अनुच्छेद 19(1)(जी) और अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त वकालत के मौलिक अधिकार और एडवोकेट्स एक्ट, 1961 में “एक अकल्पनीय और अपमानजनक हस्तक्षेप” है।
  • यह दलील दी गई कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 132 (जो “व्यावसायिक संचार” की रक्षा करती है) मुवक्किल को दिया गया एक संरक्षण है। वकील को विशेषाधिकार प्राप्त जानकारी का खुलासा करने के लिए मजबूर करने से वकील पेशेवर कदाचार (professional misconduct) का दोषी बन जाएगा।
  • बार ने जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य (विशेष कौशल वाले पेशेवरों के संबंध में) और विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (जहां SC ने विधायी शून्यता में दिशानिर्देश बनाए थे) के मामलों का हवाला देते हुए, अदालत से इस तरह के समन जारी करने से पहले एक सहकर्मी-समीक्षा समिति (peer-review committee) या मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक जांच सहित व्यापक दिशानिर्देश देने का आग्रह किया।
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सरकार का पक्ष

भारत के अटॉर्नी जनरल श्री आर. वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने केंद्र और गुजरात राज्य की ओर से पेश होते हुए इस मुद्दे पर कोई विरोधात्मक रुख नहीं अपनाया।

  • उन्होंने सहमति व्यक्त की कि “किसी वकील को केवल कानूनी राय देने या किसी पक्ष के लिए पेश होने के कारण समन नहीं किया जा सकता।”
  • हालांकि, उन्होंने प्रस्तुत किया कि यह छूट पूर्ण नहीं है और “किसी वकील के अपने पेशेवर कर्तव्य से परे किसी अपराध में भाग लेने की स्थिति में” उसकी देयता को समाप्त नहीं करती है।
  • राज्य ने तर्क दिया कि किसी नए दिशानिर्देश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मौजूदा वैधानिक प्रावधान (BSA की धारा 132-134) स्पष्ट हैं और “समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं।” धारा 132 के परंतुक (proviso) के तहत दिए गए अपवाद (जैसे किसी अवैध उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए संचार, या अपराध/धोखाधड़ी का अवलोकन) पर्याप्त थे।
  • यह भी तर्क दिया गया कि “वकीलों के लिए… एक अलग प्रक्रिया” बनाने से एक “अलग वर्ग” बन जाएगा, जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, और विशाखा मामले के विपरीत, यहाँ “कोई विधायी शून्यता” (legislative vacuum) नहीं है जिसे भरने की आवश्यकता हो।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और तर्क

अदालत ने दलीलों पर विचार करने के बाद, यह मानते हुए नए दिशानिर्देश तैयार करने से इनकार कर दिया कि मौजूदा वैधानिक ढांचा पर्याप्त उपचार प्रदान करता है।

1. दिशानिर्देशों और सहकर्मी-समीक्षा पर: अदालत ने बार द्वारा उद्धृत मिसालों को वर्तमान मामले से अलग माना।

  • अदालत ने कहा कि जैकब मैथ्यू का मामला लागू नहीं होता क्योंकि वह “चिकित्सीय लापरवाही के पहलू पर आपराधिक दायित्व के रूप में लापरवाही से संबंधित था।” जबकि वर्तमान मामला “पेशेवर लापरवाही के किसी भी पहलू से संबंधित नहीं है।”
  • विशाखा मामले को भी यह कहकर अलग किया गया कि वह “विधायी शून्यता को भरने के लिए” एक “वर्ग कार्रवाई” (class action) थी। अदालत ने पाया कि वर्तमान मामले में, “हमें नहीं लगता कि… यहां कोई न्यायिक शून्यता है जिसके लिए हमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।”
  • अदालत ने एक सहकर्मी-समीक्षा समिति या पूर्व-समन मजिस्ट्रियल मंजूरी की मांग को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह “BNSS के प्रावधानों का उल्लंघन” और “प्रतिकूल” (counter-productive) होगा, जो संभावित रूप से न्याय के उद्देश्य को विफल कर सकता है।
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2. वकील-मुवक्किल विशेषाधिकार (धारा 132 BSA) पर: अदालत ने पुष्टि की कि धारा 132 “मुवक्किल को दिया गया एक विशेषाधिकार है, जो एक वकील को किसी भी पेशेवर संचार का खुलासा नहीं करने के लिए बाध्य करता है।” यह “वकील को मिली एक छूट” है जिसे वह मुवक्किल की ओर से लागू कर सकता है। अदालत ने कहा कि यह विशेषाधिकार अनुच्छेद 20(3) के तहत मुवक्किल के “आत्म-दोषारोपण के खिलाफ संवैधानिक संरक्षण’ का ही एक विस्तार” है।

3. न्यायिक निगरानी पर: अदालत ने माना कि BNSS की धारा 528 (हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्ति) के तहत पर्याप्त न्यायिक निगरानी पहले से मौजूद है। अदालत ने पाया कि मूल मामले में हाईकोर्ट ने “त्रुटिपूर्ण और गलत” निर्णय देकर अपनी “अंतर्निहित शक्तियों का त्याग” किया था।

4. दस्तावेजों और डिजिटल उपकरणों के प्रस्तुत करने पर: अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 132 के तहत विशेषाधिकार दस्तावेजों को प्रस्तुत करने (production of documents) से नहीं रोकता है। गंगाराम बनाम हबीब-उल्लाह मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा कि BNSS की धारा 94(3) धारा 132 के तहत दस्तावेजों को छूट नहीं देती है।

हालांकि, अदालत ने निर्देश दिया कि ऐसा कोई भी प्रस्तुतीकरण जांच अधिकारी (IO) के समक्ष नहीं, बल्कि अदालत के समक्ष किया जाना चाहिए। इसके बाद अदालत प्रस्तुतीकरण या स्वीकार्यता पर किसी भी आपत्ति का फैसला करेगी।

डिजिटल उपकरणों के लिए, अदालत ने एक विशिष्ट सुरक्षा उपाय अनिवार्य किया: “डिजिटल उपकरण को केवल पक्षकार और वकील की उपस्थिति में ही खोला जाएगा, जिन्हें अपनी पसंद के डिजिटल तकनीक विशेषज्ञ की सहायता प्राप्त करने में सक्षम बनाया जाएगा।” अदालत को यह भी ध्यान रखना होगा कि “वकील के अन्य मुवक्किलों के संबंध में गोपनीयता भंग न हो।”

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5. इन-हाउस वकीलों पर: अदालत ने स्पष्ट किया कि “इन-हाउस वकील धारा 132 के तहत विशेषाधिकार के हकदार नहीं होंगे।”

  • इसका कारण यह बताया गया कि एडवोकेट्स एक्ट, 1961 और बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) नियम 49 के तहत, एक पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने का हकदार नहीं है।
  • अदालत ने एक्जो नोबल लिमिटेड बनाम यूरोपीय आयोग मामले में यूरोपीय न्यायालय (European Court of Justice) के तर्क को मंजूरी दी, जिसमें कहा गया था कि एक इन-हाउस वकील की “आर्थिक निर्भरता और… अपने नियोक्ता के साथ घनिष्ठ संबंध” का मतलब है कि “वह एक बाहरी वकील की तुलना में पेशेवर स्वतंत्रता का आनंद नहीं लेता” और वह अपने “नियोक्ता द्वारा अपनाई गई वाणिज्यिक रणनीतियों से प्रभावित” होता है।

अंतिम निर्णय और दिशा-निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने मूल SLP में वकील को जारी किए गए “अवैध” समन को रद्द करते हुए स्वत: संज्ञान मामले का निपटारा कर दिया। अदालत ने निम्नलिखित बाध्यकारी दिशा-निर्देश जारी किए:

  1. एक जांच अधिकारी किसी आरोपी का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील को मामले का विवरण जानने के लिए तब तक समन जारी नहीं करेगा, जब तक कि यह धारा 132 BSA के अपवादों (जैसे किसी अवैध उद्देश्य को आगे बढ़ाना) के अंतर्गत न आता हो।
  2. जब किसी अपवाद के तहत समन जारी किया जाता है, तो उसमें उन तथ्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख होना चाहिए जिन पर अपवाद आधारित है।
  3. ऐसा समन पुलिस अधीक्षक (SP) के पद से नीचे के किसी वरिष्ठ अधिकारी की सहमति से जारी किया जाना चाहिए, जो समन जारी करने से पहले अपनी संतुष्टि को लिखित रूप में दर्ज करेगा।
  4. इस प्रकार जारी किया गया कोई भी समन वकील या मुवक्किल द्वारा BNSS की धारा 528 के तहत न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।
  5. दस्तावेजों और डिजिटल उपकरणों को (IO के बजाय) अदालत के समक्ष पेश करने के लिए निर्देश दिए गए, जिसमें डिजिटल उपकरणों की जांच के लिए विशिष्ट सुरक्षा उपाय शामिल हैं।
  6. यह घोषित किया गया कि इन-हाउस वकील BSA की धारा 132 के तहत विशेषाधिकार के हकदार नहीं हैं।

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