सुप्रीम कोर्ट की एक तीन-जजों पीठ ने मंगलवार को उस स्वतः संज्ञान (suo motu) मामले को मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की पीठ के पास भेज दिया जिसमें लोकपाल द्वारा एक हाईकोर्ट के मौजूदा जज के खिलाफ शिकायत पर विचार करने के निर्णय को चुनौती दी गई है।
यह मामला जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ के समक्ष कई बार सूचीबद्ध रहा है। आज सुनवाई के दौरान जस्टिस ओका ने कहा कि लोकपाल के आदेश में स्वयं कहा गया है कि वह इस मामले में मुख्य न्यायाधीश के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा कर रहा है, अतः न्यायिक शिष्टाचार और विधिक मर्यादा की दृष्टि से यह उचित होगा कि इस विषय पर निर्णय मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ही ले।
लोकपाल के 27 जनवरी के आदेश का उल्लेख करते हुए जस्टिस ओका ने कहा कि:

“माननीय भारत के मुख्य न्यायाधीश के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा करते हुए, इन शिकायतों पर विचार, फिलहाल चार सप्ताह के लिए स्थगित किया जाता है, धारा 20(4) के अंतर्गत शिकायतों के निस्तारण के लिए निर्धारित समयसीमा को ध्यान में रखते हुए।”
पृष्ठभूमि
यह मामला एक शिकायत से जुड़ा है जिसमें आरोप लगाया गया था कि एक हाईकोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश ने एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश और एक अन्य हाईकोर्ट के न्यायाधीश को एक निजी कंपनी के पक्ष में निर्णय लेने हेतु प्रभावित किया। यह शिकायत लोकपाल के समक्ष दर्ज की गई थी, जिसकी अध्यक्षता पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस एएम खानविलकर कर रहे हैं।
लोकपाल ने अपने आदेश में कहा कि चूंकि यह हाईकोर्ट संसद द्वारा पारित अधिनियम के तहत एक नवगठित राज्य के लिए स्थापित किया गया है, अतः इस न्यायालय के जज “Lokpal and Lokayuktas Act, 2013” की धारा 14(1)(f) के तहत “any person” की परिभाषा में आते हैं।
लोकपाल ने कहा:
“यह तर्क देना कि हाईकोर्ट का जज ‘any person’ की परिभाषा में नहीं आएगा, अत्यंत भोला और अपर्याप्त होगा।”
हालांकि, लोकपाल ने स्पष्ट किया कि वह इस आदेश में केवल अधिकार क्षेत्र के प्रश्न पर निर्णय दे रहा है, न कि आरोपों की सत्यता पर। आदेश में लिखा गया:
“हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस आदेश द्वारा हमने केवल एकमात्र मुद्दे — क्या संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित हाईकोर्ट के न्यायाधीश धारा 14 के अंतर्गत आते हैं — पर निर्णय दिया है, और वह भी सकारात्मक रूप में। इससे अधिक कुछ नहीं।”
इससे पहले लोकपाल यह निर्णय भी दे चुका है कि वह सुप्रीम कोर्ट या भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ शिकायतों पर अधिकार क्षेत्र नहीं रखता, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा स्थापित निकाय नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
20 फरवरी को, जब सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल के आदेश पर अंतरिम रोक लगाई थी, उस समय जस्टिस गवई ने लोकपाल की तर्कप्रणाली को “कुछ अत्यंत चिंताजनक” बताया था। साथ ही, जस्टिस गवई और जस्टिस ओका ने यह टिप्पणी की थी कि संविधान लागू होने के बाद से हाईकोर्ट के न्यायाधीश संवैधानिक प्राधिकरण रहे हैं, न कि महज वैधानिक अधिकारी जैसा कि लोकपाल ने माना।
18 मार्च को, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और बीएच मार्लापल्ले ने लोकपाल के आदेश के विरोध में तर्क प्रस्तुत किए। न्यायालय ने निष्पक्षता हेतु वरिष्ठ अधिवक्ता रणजीत कुमार को अमाइकस क्यूरी (न्याय मित्र) नियुक्त किया।
जस्टिस गवई ने यह भी स्पष्ट किया कि पीठ केवल यह देखेगी कि क्या लोकपाल को ऐसा अधिकार है, न कि आरोपों की सच्चाई पर विचार करेगी।
अब यह मामला मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक बड़ी पीठ के समक्ष सुना जाएगा, जिससे तय हो सकेगा कि क्या लोकपाल हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायतों पर विचार करने का अधिकार रखता है।