नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के एक फैसले को कड़ी आलोचना करते हुए रद्द कर दिया, जिसमें 1986 के एक बाल यौन शोषण मामले में आरोपी को केवल इस आधार पर बरी कर दिया गया था कि पीड़िता ने जिरह के दौरान चुप्पी साध ली और सिर्फ आंसू बहाए। इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सेशंस कोर्ट द्वारा दी गई दोषसिद्धि को बहाल करते हुए आरोपी को समर्पण करने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला राजस्थान राज्य बनाम छत्रा (Criminal Appeal No. 586 of 2017) से जुड़ा है, जिसमें 3 मार्च 1986 को राजस्थान के सुरेली गांव में एक नाबालिग बच्ची ‘V’ के साथ बलात्कार की घटना हुई थी। आरोपी छत्रा को 1987 में सेशंस कोर्ट ने दोषी ठहराया था, लेकिन 2013 में राजस्थान हाईकोर्ट ने उसे बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए आरोपी की दोषसिद्धि को बहाल किया और उसे जल्द से जल्द आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया।
3 मार्च 1986 की रात को गांव के निवासी गुलाब चंद ने पीड़िता को आरोपी छत्रा के घर में बेहोश और गंभीर रूप से घायल अवस्था में पाया। पीड़िता के गुप्तांगों से खून बह रहा था। अगले दिन पुलिस में मामला दर्ज कराया गया। अभियोजन पक्ष ने ठोस मेडिकल और प्रत्यक्षदर्शी गवाह पेश किए, जिसके आधार पर सेशंस कोर्ट, टोंक ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 के तहत दोषी करार दिया और सात साल की सजा सुनाई।

हालांकि, 2013 में राजस्थान हाईकोर्ट ने गवाहों के बयानों में विरोधाभास और फॉरेंसिक साक्ष्य की कमी का हवाला देते हुए दोषसिद्धि को रद्द कर दिया। इस फैसले को राजस्थान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
सुप्रीम कोर्ट में प्रमुख कानूनी मुद्दे
- बाल पीड़िता की मौन गवाही की विश्वसनीयता:
- हाईकोर्ट ने इस आधार पर पीड़िता की गवाही को खारिज कर दिया था कि उसने जिरह के दौरान कुछ नहीं कहा और केवल रोती रही।
- सुप्रीम कोर्ट ने इसे मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया बताते हुए कहा कि यौन शोषण की शिकार बच्चियां अक्सर सदमे में आ जाती हैं और चुप्पी कोई विरोधाभास नहीं बल्कि उनके आघात (trauma) की निशानी होती है।
- एफआईआर दर्ज करने में देरी:
- हाईकोर्ट ने सवाल उठाया था कि घटना के अगले दिन ही पुलिस रिपोर्ट क्यों दर्ज कराई गई।
- सुप्रीम कोर्ट ने इसे जायज ठहराते हुए कहा कि ग्रामीण इलाकों में और पीड़िता की गंभीर हालत को देखते हुए यह स्वाभाविक था।
- मेडिकल रिपोर्ट की पुष्टि:
- सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मेडिकल रिपोर्ट अभियोजन पक्ष के दावों की पुष्टि करती है।
- डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से बताया था कि पीड़िता की चोटें बलात्कारी द्वारा किए गए हमले से मेल खाती हैं और किसी दुर्घटना का परिणाम नहीं हो सकतीं।
- प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की विश्वसनीयता:
- हाईकोर्ट ने प्रत्यक्षदर्शी गुलाब चंद के बयान में मामूली विरोधाभासों के कारण उसे अविश्वसनीय मान लिया था।
- सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज करते हुए कहा कि ऐसे मामूली अंतर किसी भी गवाह के बयान में हो सकते हैं और इससे उसकी विश्वसनीयता पर कोई असर नहीं पड़ता।
सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी और फैसला
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले की कड़ी आलोचना की। अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि को रद्द करने से पहले साक्ष्यों का स्वतंत्र और निष्पक्ष विश्लेषण नहीं किया, जो एक गंभीर गलती थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
- “एक नाबालिग पीड़िता के आंसुओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सदमे ने उसे खामोश कर दिया, लेकिन यह मौन अभियोजन पक्ष के लिए बाधा नहीं बन सकता।”
- “हाईकोर्ट ने साक्ष्यों का गहराई से मूल्यांकन नहीं किया और दोषसिद्धि को गलत तरीके से रद्द कर दिया।”
- “परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मेडिकल रिपोर्ट और विश्वसनीय प्रत्यक्षदर्शी गवाह एक मजबूत श्रृंखला बनाते हैं, जिसे मामूली विसंगतियां नहीं तोड़ सकतीं।”
अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की दलीलों को स्वीकार किया और आरोपी की दोषसिद्धि को बहाल कर दिया। अदालत ने आदेश दिया कि आरोपी छत्रा चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करे और अपनी शेष सजा पूरी करे।