सुप्रीम कोर्ट ने अंतर-राज्यीय व्यापार पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए राजस्थान सरकार की उस अधिसूचना को रद्द कर दिया है, जिसमें स्थानीय रूप से निर्मित एस्बेस्टस सीमेंट उत्पादों पर वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) से पूरी छूट दी गई थी। जस्टिल बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि यह छूट, जो दूसरे राज्यों से आयातित समान वस्तुओं पर लागू नहीं थी, भेदभावपूर्ण थी और संविधान के अनुच्छेद 304(ए) का स्पष्ट उल्लंघन करती थी।
अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि स्थानीय निर्माताओं को बढ़ावा देने वाले टैक्स प्रोत्साहनों का स्पष्ट और न्यायोचित कारण अधिसूचना में ही लिखा होना चाहिए। बाद में हलफनामे के जरिए इन कारणों को सही नहीं ठहराया जा सकता। यह निर्णय भारत में एक एकीकृत आर्थिक बाजार के संवैधानिक जनादेश को मजबूत करता है, जो राज्यों द्वारा खड़ी की गई संरक्षणवादी राजकोषीय बाधाओं से मुक्त हो।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपीलें मैसर्स यू.पी. एस्बेस्टस लिमिटेड और मैसर्स एवरेस्ट इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा दायर की गई थीं। ये कंपनियाँ राजस्थान के बाहर एस्बेस्टस सीमेंट उत्पादों का निर्माण करती हैं, लेकिन राज्य में अपने पंजीकृत बिक्री डिपो के माध्यम से उन्हें बेचती हैं।

विवाद का केंद्र अधिसूचना संख्या एस.ओ.377, दिनांक 9 मार्च, 2007 थी, जो राजस्थान वैल्यू एडेड टैक्स एक्ट, 2003 के तहत जारी की गई थी। इस अधिसूचना के तहत राजस्थान में निर्मित एस्बेस्टस सीमेंट शीट और ईंटों की बिक्री पर टैक्स से छूट दी गई थी, बशर्ते उनमें वजन के हिसाब से 25% या अधिक फ्लाई ऐश हो। यह लाभ उन डीलरों तक ही सीमित था, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2006 तक राज्य में व्यावसायिक उत्पादन शुरू कर दिया था और यह छूट शुरू में 23 जनवरी, 2010 तक उपलब्ध थी।
यह नीति 24 जनवरी, 2000 से पिछले राजस्थान बिक्री कर अधिनियम, 1994 के तहत दी जा रही छूटों का ही विस्तार थी। अपीलकर्ताओं ने 2007 की इस अधिसूचना को राजस्थान हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि यह उनके उत्पादों के खिलाफ एक असंवैधानिक भेदभाव पैदा करती है।
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 1989 के फैसले वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स प्रा. लिमिटेड बनाम पंजाब राज्य पर भरोसा करते हुए उनकी याचिकाएं खारिज कर दी थीं। उस मामले में विशेष परिस्थितियों में स्थानीय उद्योगों के लिए कुछ टैक्स प्रोत्साहनों को बरकरार रखा गया था। हाईकोर्ट के इस फैसले से असंतुष्ट होकर कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं के तर्क:
- वरिष्ठ अधिवक्ता श्री निखिल गोयल और अधिवक्ता सुश्री कविता झा ने दलील दी कि यह अधिसूचना “भेदभावपूर्ण प्रकृति की है और संविधान के अनुच्छेद 304(ए) का उल्लंघन करती है।” उन्होंने कहा कि यह स्थानीय निर्माताओं को अनुचित लाभ देती है, जिससे अनुच्छेद 301 के तहत गारंटीकृत व्यापार और वाणिज्य की मुक्त आवाजाही में बाधा उत्पन्न होती है।
- उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि छूट का कथित औचित्य—राजस्थान में उपलब्ध फ्लाई ऐश के उपयोग को प्रोत्साहित करना—अधिसूचना में कहीं भी अनिवार्य नहीं था, क्योंकि स्थानीय निर्माता कहीं से भी फ्लाई ऐश प्राप्त कर सकते थे।
- अपीलकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स मामले पर भरोसा करना गलत था। उस मामले में एक पिछड़े या अशांत राज्य के विकास के लिए सीमित अवधि के लिए नए औद्योगिक इकाइयों के एक विशेष वर्ग को संरचित प्रोत्साहन दिया गया था। इसके विपरीत, राजस्थान की छूट एक दशक से अधिक समय से सभी पुराने और नए निर्माताओं को दी जा रही थी।
- मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त में संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि किसी भी सार्वजनिक आदेश की वैधता का आकलन आदेश में उल्लिखित कारणों से होना चाहिए, न कि “हलफनामे के रूप में नए कारणों को पूरक बनाकर।”
राजस्थान सरकार के तर्क:
- राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. मनीष सिंघवी ने अधिसूचना का बचाव करते हुए इसे औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए अपनी संप्रभु शक्ति का एक वैध प्रयोग बताया। उन्होंने तर्क दिया कि यह ‘भेदभाव’ नहीं, बल्कि ‘विभेदीकरण’ का एक रूप था, जिसका समर्थन नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने जिंदल स्टेनलेस लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य मामले में किया था।
- राज्य ने दलील दी कि इस नीति का उद्देश्य एक ऐसे क्षेत्र में निवेश आकर्षित करना था, जहाँ राजस्थान में पहले कोई विनिर्माण इकाई नहीं थी, और साथ ही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध स्थानीय कच्चे माल, फ्लाई ऐश, के उपयोग को बढ़ावा देना था।
- डॉ. सिंघवी ने कहा कि यह छूट वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स मामले में बनाए गए “असाधारण श्रेणी” के अंतर्गत आती है, क्योंकि यह एक विशेष वर्ग की वस्तुओं के लिए थी और वैध आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक सीमित अवधि के लिए थी।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और तर्क
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के भाग XIII, जो भारत के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम को नियंत्रित करता है, पर न्यायिक व्याख्याओं की व्यापक समीक्षा की।
पीठ ने माना कि मुख्य परीक्षण यह था कि क्या विवादित अधिसूचना को वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स मामले में स्थापित सीमित अपवाद के तहत उचित ठहराया जा सकता है, जैसा कि जिंदल स्टेनलेस लिमिटेड मामले में नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा व्याख्या की गई थी।
इस परीक्षण को लागू करते हुए, अदालत ने राजस्थान की अधिसूचना को अपर्याप्त पाया। पीठ के लिए फैसला लिखने वाली जस्टिस नागरत्ना ने पाया कि अधिसूचना में दिया गया एकमात्र कारण यह था कि “ऐसा करना जनहित में समीचीन है,” जिसे अपर्याप्त माना गया। अदालत ने कहा, “किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में, हम यह निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हैं कि विवादित अधिसूचना किसी भी कारण या औचित्य से रहित है।”
अदालत ने राज्य द्वारा अपने जवाबी हलफनामे के माध्यम से औचित्य प्रदान करने के प्रयास को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। मोहिंदर सिंह गिल सिद्धांत को बरकरार रखते हुए, फैसले में कहा गया, “सार्वजनिक आदेश, जो एक वैधानिक प्राधिकरण के प्रयोग में सार्वजनिक रूप से किए जाते हैं, की व्याख्या बाद में आदेश देने वाले अधिकारी द्वारा दिए गए स्पष्टीकरणों के प्रकाश में नहीं की जा सकती… [उन्हें] आदेश में प्रयुक्त भाषा के संदर्भ में निष्पक्ष रूप से समझा जाना चाहिए।”
इसके अलावा, अदालत ने अधिसूचना के डिजाइन में एक घातक दोष की पहचान की। यदि उद्देश्य वास्तव में राजस्थान से फ्लाई ऐश के उपयोग को बढ़ावा देना था, तो छूट को कच्चे माल के स्रोत से जोड़ा जाना चाहिए था, न कि विनिर्माण इकाई के स्थान से।
अंतिम फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलें स्वीकार करते हुए 9 मार्च, 2007 की अधिसूचना संख्या एस.ओ.377 को रद्द कर दिया और इसे संविधान के अनुच्छेद 304(ए) का उल्लंघन घोषित किया।
पीठ ने निर्देश दिया कि मुकदमे के दौरान अपीलकर्ताओं द्वारा अदालत में जमा की गई अंतरिम टैक्स राशि की वापसी पर निर्देशों के लिए मामले को फिर से सूचीबद्ध किया जाए। अदालत ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता 6% वार्षिक ब्याज के साथ धनवापसी के हकदार होंगे, बशर्ते उन्होंने उक्त राशि अपने ग्राहकों से न वसूली हो।