सुप्रीम कोर्ट ने एक तीखी टिप्पणी करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार द्वारा पारित आदेश को “अब तक का सबसे ख़राब और सबसे त्रुटिपूर्ण आदेश” और “न्याय का मजाक” करार देते हुए निरस्त कर दिया। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने उक्त आदेश को रद्द करते हुए मामले को पुनः सुनवाई के लिए लौटाया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक असाधारण निर्देश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को संबंधित जज से सभी आपराधिक मामले वापस लेने और उन्हें एक वरिष्ठ जज के साथ खंडपीठ में स्थानांतरित करने का आदेश दिया।
मामला क्या था?
मामला एम/एस ललिता टेक्सटाइल कन्सर्न (प्रतिवादी संख्या 2) द्वारा एम/एस शिखर केमिकल्स (याचिकाकर्ता) के विरुद्ध दायर एक निजी शिकायत से शुरू हुआ, जिसमें आरोप लगाया गया कि अप्रैल से जुलाई 2019 के बीच 52,34,385 रुपये की यार्न आपूर्ति की गई, जिसमें से 4,59,385 रुपये का भुगतान शेष था। जीएसटी विभाग ने भी धारा 73(9) के तहत कर लाभों की धोखाधड़ी के लिए जुर्माना लगाया था।
कानूनी नोटिस और पुलिस शिकायत के बावजूद जब कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो शिकायतकर्ता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 202 सीआरपीसी के तहत जांच के बाद याचिकाकर्ता श्रीमती कुमकुम पांडे के विरुद्ध आईपीसी की धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत समन जारी किया।

इस आदेश को याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में धारा 482 सीआरपीसी के तहत चुनौती दी।
हाईकोर्ट का फैसला
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की एकल पीठ ने 5 मई 2025 को याचिका खारिज कर दी। हाईकोर्ट के आदेश में उल्लेख किया गया:
“यदि ओ.पी. संख्या 2 को सिविल मुकदमा दायर करने के लिए कहा गया, तो वह लंबी कानूनी प्रक्रिया झेलने में असमर्थ होगा। यह न्याय का उपहास होगा और उसे अपूरणीय क्षति होगी…”
हाईकोर्ट ने इस आधार पर आपराधिक कार्रवाई को जारी रखने को उचित ठहराया कि सिविल मुकदमों में देरी और खर्च अधिक है।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी आलोचना
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और मजिस्ट्रेट के आदेशों को लेकर गंभीर असहमति जताई। कोर्ट ने कहा:
“हम अत्यंत विनम्रता और सम्मान के साथ यह कहने के लिए बाध्य हैं कि यह आदेश हमारी अब तक की न्यायिक सेवा में सबसे खराब और सबसे त्रुटिपूर्ण आदेशों में से एक है।”
“न्यायाधीश ने न केवल स्वयं को हास्यास्पद स्थिति में ला दिया है, बल्कि न्याय का उपहास भी किया है।”
कोर्ट ने यह भी पूछा कि क्या यह आदेश “किसी बाहरी प्रभाव के कारण पारित हुआ है या फिर यह कानून की घोर अज्ञानता को दर्शाता है।”
दीवानी बनाम आपराधिक विवाद
कोर्ट ने दोहराया कि एक विशुद्ध रूप से दीवानी विवाद को आपराधिक रंग नहीं दिया जा सकता। यह मामला मूलतः एक विक्रेता द्वारा बकाया राशि वसूलने से जुड़ा था। पुलिस ने भी एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया था, यह मानते हुए कि मामला दीवानी है।
कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश की विशेष रूप से आलोचना करते हुए कहा:
“क्या हाईकोर्ट यह मानता है कि यदि आरोपी दोषी ठहराया जाता है तो ट्रायल कोर्ट उसे बकाया राशि का भुगतान करेगा?”
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस तरह की आपराधिक कार्यवाही की अनुमति देना “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” है।
विश्वासघात का कोई आधार नहीं
कोर्ट ने कहा कि आपराधिक विश्वासघात (धारा 406) के लिए आवश्यक तत्व ‘संपत्ति का सौंपा जाना’ (entrustment) इस मामले में मौजूद नहीं था। उन्होंने State of Gujarat vs. Jaswantlal Nathalal (1968) पर भरोसा जताते हुए दोहराया:
“सिर्फ बिक्री लेन-देन को ‘सौंपा जाना’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि बिक्री के बाद माल का स्वामित्व खरीदार को चला जाता है।”
कोर्ट ने हालिया Delhi Race Club (1940) Ltd. बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) फैसले का भी हवाला दिया।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय और असाधारण निर्देश
“कानून की घोर अज्ञानता” को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट के आदेश को बिना प्रतिवादियों को नोटिस दिए रद्द कर दिया। मामले को दोबारा सुनवाई के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजा गया।
साथ ही कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निम्नलिखित निर्देश दिए:
- मामला अन्य जज को सौंपा जाए: पुनः सुनवाई हेतु यह मामला किसी अन्य जज को सौंपा जाए।
- आपराधिक मामलों से हटाया जाए: संबंधित जज से सभी आपराधिक मामले तुरंत वापस लिए जाएं।
- खंडपीठ में नियुक्ति: संबंधित जज को अब केवल किसी वरिष्ठ जज के साथ खंडपीठ में बैठाया जाए।
- भविष्य में आपराधिक ड्यूटी नहीं: जब तक वे पद पर हैं, उन्हें कोई भी आपराधिक कार्यभार न सौंपा जाए। यदि वे भविष्य में एकल पीठ में बैठते हैं, तो वह भी बिना किसी आपराधिक मामलों के हो।
कोर्ट ने आदेश की एक प्रति इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को तुरंत अनुपालन के लिए भेजने का निर्देश भी दिया।