सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पूरे देश में पॉर्न वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। अदालत ने कहा कि ऐसे व्यापक प्रतिबंधों के सामाजिक प्रभाव गंभीर हो सकते हैं, जैसा कि हाल ही में नेपाल में देखा गया, जहां ऑनलाइन सामग्री पर रोक लगाने के खिलाफ युवाओं ने हिंसक प्रदर्शन किए थे।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ, जो 23 नवम्बर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, ने इस टिप्पणी के साथ याचिका को चार सप्ताह बाद सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।
पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा, “देखिए नेपाल में बैन के बाद क्या हुआ।”
याचिकाकर्ता ने अदालत से केंद्र सरकार को यह निर्देश देने की मांग की थी कि वह पॉर्न सामग्री पर रोक लगाने और विशेष रूप से नाबालिगों की पहुंच को सीमित करने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाए। याचिका में दावा किया गया कि देश में अरबों पॉर्न वेबसाइट्स मौजूद हैं और सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुकी है।
इसके साथ ही यह भी कहा गया कि कोविड-19 महामारी के दौरान बच्चों की डिजिटल डिवाइसों पर निर्भरता बढ़ गई, लेकिन ऐसी कोई ठोस व्यवस्था नहीं है जो उन्हें अश्लील या अनुचित सामग्री से बचा सके। याचिकाकर्ता ने यह भी आरोप लगाया कि भारत में 20 करोड़ से अधिक पॉर्न वीडियो, जिनमें बाल यौन सामग्री भी शामिल है, खुलेआम बिक रहे हैं। उसने आईटी अधिनियम की धारा 69ए के तहत ऐसी वेबसाइट्स को तत्काल ब्लॉक करने की मांग की।
अदालत ने, हालांकि, इस दलील को ठुकराते हुए कहा कि पहले से ही डिजिटल नियंत्रण और पैरेंटल कंट्रोल सिस्टम उपलब्ध हैं, और इस तरह के व्यापक प्रतिबंध उलटे परिणाम दे सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि ऑनलाइन सामग्री पर रोक लगाना नीतिगत फैसला है, जो सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। अदालत ने कहा कि इस तरह के मामलों में नैतिकता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और तकनीकी वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाए रखना बेहद जरूरी है।




