सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को संकेत दिया कि वह 12 वर्षों से अधिक समय से कोमा की अवस्था में पड़े 31 वर्षीय युवक के माता-पिता से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात करना चाहता है। यह टिप्पणी उस याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें पिता ने बेटे के लिए कृत्रिम जीवन-रक्षक उपचार हटाने यानी पैसिव यूथनेशिया की अनुमति मांगी है।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने एम्स (AIIMS) की द्वितीयक मेडिकल बोर्ड द्वारा दाखिल मेडिकल रिपोर्ट का अवलोकन करते हुए इसे बेहद पीड़ादायक बताया। पीठ ने कहा कि यह रिपोर्ट बेहद दुखद है और इस स्थिति में युवक को लंबे समय तक बनाए रखना कठिन सवाल खड़े करता है। इसके साथ ही अदालत ने 13 जनवरी को दोपहर 3 बजे युवक के माता-पिता से मुलाकात तय की है।
यह मामला अशोक राणा की याचिका से जुड़ा है, जिन्होंने अपने बेटे हरीश राणा के लिए जीवन-रक्षक उपकरण हटाने की न्यायिक अनुमति मांगी है। हरीश को वर्ष 2013 में चौथी मंजिल से गिरने के बाद गंभीर सिर में चोटें आई थीं। उस समय वह पंजाब विश्वविद्यालय का छात्र था। तब से वह पूरी तरह बिस्तर पर है और पिछले 12 वर्षों से अधिक समय से कृत्रिम सहारे पर जीवन जी रहा है।
अदालत के समक्ष रखी गई रिपोर्टों के अनुसार, हरीश सांस लेने के लिए ट्रेकियोस्टॉमी ट्यूब पर निर्भर है और उसे भोजन गैस्ट्रोस्टॉमी के माध्यम से दिया जा रहा है। मेडिकल दस्तावेजों और तस्वीरों में गंभीर बेड सोर्स की स्थिति भी सामने आई है। प्राथमिक मेडिकल बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि उसकी मौजूदा हालत से उबरने की संभावना न के बराबर है और वह लंबे समय से वेजिटेटिव स्टेट में है।
इससे पहले 11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने प्राथमिक मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए युवक की हालत को “दयनीय” बताया था। अदालत ने यह भी कहा था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2023 में जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार, ऐसे मामलों में प्राथमिक और द्वितीयक दोनों मेडिकल बोर्ड की राय अनिवार्य है। इसी प्रक्रिया के तहत एम्स को द्वितीयक मेडिकल बोर्ड गठित करने और रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया गया था।
नवंबर 26 को शीर्ष अदालत ने नोएडा के सेक्टर-39 स्थित जिला अस्पताल को प्राथमिक मेडिकल बोर्ड बनाने का आदेश दिया था और कहा था कि युवक की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। अदालत ने बोर्ड से यह भी स्पष्ट राय मांगी थी कि क्या जीवन-रक्षक उपचार को रोका या हटाया जा सकता है।
यह दूसरी बार है जब हरीश के माता-पिता पैसिव यूथनेशिया की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। पिछले वर्ष 8 नवंबर को अदालत ने केंद्र सरकार की रिपोर्ट पर भी गौर किया था, जिसमें सुझाव दिया गया था कि यदि संभव हो तो मरीज को उत्तर प्रदेश सरकार की सहायता से होम केयर में रखा जाए और डॉक्टरों तथा फिजियोथेरेपिस्ट द्वारा नियमित निगरानी की जाए। अदालत ने यह भी कहा था कि यदि घर पर देखभाल संभव न हो, तो मरीज को नोएडा के जिला अस्पताल में स्थानांतरित किया जाए।
इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने हरीश के मामले में मेडिकल बोर्ड गठित करने से इनकार कर दिया था। हाई कोर्ट का कहना था कि वह किसी वेंटिलेटर या यांत्रिक उपकरण के सहारे जीवित नहीं है और भोजन नली के माध्यम से दिया जा रहा है, इसलिए पैसिव यूथनेशिया का मामला नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय इस निष्कर्ष से सहमति जताई थी, लेकिन साथ ही यह भी माना था कि एक दशक से अधिक समय से वेजिटेटिव अवस्था में पड़े बेटे की देखभाल करना उसके बुजुर्ग माता-पिता के लिए बेहद कठिन हो गया है, यहां तक कि इलाज के खर्च के लिए उन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा।
अदालत पहले भी इस मामले को “बेहद कठिन” बता चुकी है। अब माता-पिता से प्रस्तावित मुलाकात और मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि कानून और चिकित्सा दिशानिर्देशों के दायरे में आगे क्या कदम उठाया जा सकता है।

