सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दो आरोपियों को दी गई जमानत को रद्द कर दिया है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि केवल सह-आरोपियों के साथ ‘समानता’ (Parity) को जमानत देने का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता। कोर्ट ने यह भी निर्धारित किया कि किसी आरोपी की “स्थिति” (Position) का अर्थ अपराध में उसकी विशिष्ट भूमिका से है, न कि केवल उसी अपराध में उसकी संलिप्तता से।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने सागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (SLP (Crl.) Nos. 8865-8866 of 2025) में यह फैसला सुनाते हुए आरोपी राजवीर और प्रिंस को दी गई राहत को पलट दिया।
कानूनी मुद्दा और परिणाम
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या सह-आरोपियों के साथ समानता ही जमानत देने का एकमात्र कारण हो सकता है, और क्या हाईकोर्ट बिना कारण बताए (non-speaking order) जमानत दे सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसका उत्तर नकारात्मक में दिया और हाईकोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने आरोपी राजवीर को दो सप्ताह के भीतर सरेंडर करने का निर्देश दिया और आरोपी प्रिंस की जमानत याचिका पर नए सिरे से विचार करने के लिए मामले को हाईकोर्ट को वापस भेज दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला हस्तिनापुर पुलिस स्टेशन में 28 जून, 2024 को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 147, 148, 149, 302 और 506 के तहत दर्ज एफआईआर संख्या 0159 से उत्पन्न हुआ।
निर्णय के अनुसार, घटना की जड़ अपीलकर्ता-शिकायतकर्ता सागर और सह-ग्रामीण सुरेश पाल व उसके बेटे आदित्य के बीच हुई जुबानी कहासुनी थी। शिकायतकर्ता के पिता, सोनवीर ने विवाद बढ़ने का विरोध किया था। घटना वाले दिन, जब शिकायतकर्ता और उसके माता-पिता अपने खेत की ओर जा रहे थे, तो कथित तौर पर आरोपी व्यक्तियों—सुरेश पाल, राजवीर, सौरव, आदित्य, प्रिंस और बिजेंद्र—ने पिस्तौल के साथ उनका रास्ता रोक लिया।
एफआईआर में आरोप लगाया गया कि आरोपी राजवीर ने पीड़ितों को धमकी दी और कहा कि उन्हें “सबक सिखाया जाएगा।” इसके बाद, सुरेश पाल ने आरोपी आदित्य को सोनवीर को गोली मारने के लिए उकसाया। आदित्य ने कथित तौर पर गोली चलाई जो सोनवीर के सीने में लगी, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
दलीलें और हाईकोर्ट की कार्यवाही
आरोपी राजवीर की जमानत याचिका अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, मेरठ द्वारा दो बार खारिज कर दी गई थी, जिसमें अपराध की गंभीरता और एंटे मॉर्टम (मृत्यु पूर्व) चोटों का हवाला दिया गया था। हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 3 जनवरी, 2025 को राजवीर को मुख्य रूप से सह-आरोपी सुरेश पाल के साथ समानता के आधार पर जमानत दे दी, जिसे 22 नवंबर, 2024 को जमानत मिली थी। हाईकोर्ट ने कहा था कि राजवीर का कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और वह “समानता के आधार पर जमानत पाने का हकदार है।”
सह-आरोपी प्रिंस के मामले में, हाईकोर्ट ने 18 दिसंबर, 2024 को जमानत दी थी। इसमें सतेंद्र कुमार अंतिल और मनीष सिसोदिया जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का संदर्भ तो दिया गया, लेकिन जमानत देने के लिए कोई विशिष्ट कारण नहीं बताया गया।
कोर्ट का विश्लेषण
समानता के सिद्धांत पर (आरोपी राजवीर) सुप्रीम कोर्ट ने केवल समानता के आधार पर राहत देने के हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना की। जस्टिस करोल ने पीठ के लिए निर्णय लिखते हुए कहा कि भले ही “जमानत नियम है और जेल अपवाद”, इसका मतलब यह नहीं है कि मामले की परिस्थितियों की अनदेखी की जाए।
कोर्ट ने ‘समानता’ की कानूनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा:
“‘समानता’ (Parity) शब्द को कैम्ब्रिज डिक्शनरी में ‘बराबरी, विशेष रूप से वेतन या स्थिति की’ के रूप में परिभाषित किया गया है। जब समानता के आधार पर आवेदन को तौला जाता है, तो ‘स्थिति’ (Position) निर्णायक होती है। ‘स्थिति’ की आवश्यकता केवल उसी अपराध में शामिल होने से पूरी नहीं होती। स्थिति का अर्थ है कि जिस व्यक्ति के आवेदन पर विचार किया जा रहा है, अपराध में उसकी क्या स्थिति है, यानी उसकी भूमिका आदि।”
पीठ ने आरोपियों की भूमिकाओं में अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि राजवीर “उस क्षण उकसाने वाला” (instigator of the moment) था, जबकि सह-आरोपी सुरेश पाल, जिसके साथ समानता की मांग की गई थी, भीड़ का सदस्य था। कोर्ट ने कहा:
“मृतक को गोली मारने के समय इन दोनों लोगों की भूमिकाओं को समान नहीं कहा जा सकता, भले ही वे दूसरे पक्ष को नुकसान पहुंचाने का समान इरादा रखते हों। इस दृष्टिकोण से, समानता के आधार पर जमानत पर विचार करना गलत है।”
कोर्ट ने क्रिमिनल अपील नंबर 1200 ऑफ 2025 में अपने 3 मार्च, 2025 के आदेश का भी उल्लेख किया, जिसमें सह-आरोपी सुरेश पाल की जमानत को पहले ही रद्द कर दिया गया था।
बिना कारण के आदेश पर (आरोपी प्रिंस) प्रिंस को दी गई जमानत के संबंध में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट का आदेश कोई भी कारण बताने में विफल रहा। पीठ ने कहा कि पिछले फैसलों का केवल संदर्भ देना पर्याप्त नहीं है यदि यह नहीं बताया गया कि वे मौजूदा मामले में कैसे लागू होते हैं।
बृजमणि देवी बनाम पप्पू कुमार के फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया:
“इस प्रकार, जबकि जमानत देने के लिए विस्तृत कारण देना आवश्यक नहीं हो सकता है, लेकिन बिना किसी तर्क या प्रासंगिक कारणों से रहित आदेश के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती। यह केवल एक ‘नॉन-स्पीकिंग ऑर्डर’ (अस्पष्ट आदेश) होगा जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार करते हुए निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- राजवीर के संबंध में: जमानत देने वाला आदेश रद्द कर दिया गया। प्रतिवादी-आरोपी को संबंधित अदालत के समक्ष दो सप्ताह के भीतर सरेंडर करने का निर्देश दिया गया।
- प्रिंस के संबंध में: आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया गया। मामले को हाईकोर्ट के पास वापस भेज दिया गया ताकि अपराध की गंभीरता और आरोपी की विशिष्ट भूमिका को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से विचार किया जा सके।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये टिप्पणियां केवल जमानत के खिलाफ अपील के निर्णय तक सीमित हैं और इन्हें मुकदमे के गुण-दोष (merits) पर टिप्पणी के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।

