आत्मरक्षा के अधिकार को आम आदमी के नजरिए से देखा जाना चाहिए; इसे सुनहरे तराजू पर नहीं तौला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने राकेश दत्त शर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए, हत्या के दोषी एक मेडिकल प्रैक्टिशनर को बरी कर दिया है। कोर्ट ने माना कि आरोपी के कार्य निजी रक्षा के अधिकार के दायरे में आते थे। जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस एन. कोटिस्वार सिंह की पीठ ने निचली अदालत और हाईकोर्ट के उन समवर्ती फैसलों को रद्द कर दिया, जिनमें अपीलकर्ता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

मामले की पृष्ठभूमि

मामले के तथ्य निर्विवाद थे। अपीलकर्ता, राकेश दत्त शर्मा, एक डॉक्टर हैं, जिनकी मृतक के साथ पैसे के लेन-देन को लेकर पुरानी दुश्मनी थी। मृतक पिस्तौल से लैस होकर अपीलकर्ता के क्लिनिक में गया और उन पर गोली चला दी। इस शुरुआती हमले के बाद, अपीलकर्ता ने मृतक से पिस्तौल छीनी और आत्मरक्षा में उसे गोली मार दी, जिससे उसकी मौत हो गई।

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दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ प्राथमिकी (FIR) दर्ज कराई थी। हालांकि, हमलावर की मृत्यु हो जाने के कारण, उसके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को बंद कर दिया गया। इसके बाद अपीलकर्ता पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 (हत्या) के तहत आरोप लगाया गया। निचली अदालत ने उन्हें आईपीसी की धारा 304 भाग I (गैर इरादतन हत्या) के तहत दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस सजा और दोषसिद्धि को बरकरार रखा, जिसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

प्रस्तुत दलीलें

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अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एस. नागमुथु ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष की कहानी से ही यह स्पष्ट है कि यह निजी रक्षा के अधिकार का एक स्पष्ट मामला है। उन्होंने दलील दी कि अपीलकर्ता को लगी चोट की प्रकृति महत्वहीन है, क्योंकि “आत्मरक्षा के अधिकार की गणना अंकगणितीय सटीकता से नहीं की जा सकती।” उन्होंने जोर देकर कहा कि धारा 302 के तहत आरोप अनुचित था और धारा 304 भाग I के तहत दोषसिद्धि भी गलत थी। अपने तर्कों के समर्थन में, उन्होंने दर्शन सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य, (2010) 2 SCC 333 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया।

इसके विपरीत, उत्तराखंड राज्य के वकील ने जोरदार तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने निजी रक्षा के अपने अधिकार की सीमा को पार कर दिया था। राज्य का तर्क पोस्टमार्टम रिपोर्ट और डॉक्टर के साक्ष्यों पर आधारित था, जिसमें यह दर्शाया गया था कि मृतक को शरीर के महत्वपूर्ण अंगों पर गोली मारी गई थी।

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न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने विश्लेषण की शुरुआत इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्थापित करते हुए की: “मृतक ही आक्रमणकारी था। वही पिस्तौल लेकर अपीलकर्ता के क्लिनिक गया और उस पर हमला किया।” अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता का बाद का हमला जवाबी कार्रवाई थी।

पीठ ने अपीलकर्ता के तर्क का पूरा समर्थन करते हुए कहा, “आत्मरक्षा के अधिकार को दरकिनार नहीं किया जा सकता और इसे सुनहरे तराजू पर नहीं तौला जा सकता।” अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे मामलों में उसका दृष्टिकोण “पांडित्यपूर्ण नहीं” होना चाहिए और स्थिति को “एक आम और तर्कसंगत व्यक्ति” के नजरिए से देखा जाना चाहिए।

एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में, अदालत ने कहा: “जब किसी आरोपी पर उसके ही स्थान पर एक व्यक्ति द्वारा हमला किया जाता है, जो पिस्तौल से लैस हो और उसके सिर पर गोली मारकर उसे घायल कर दे, तो ऐसी स्थिति में आरोपी व्यक्ति से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह आत्मरक्षा के अपने अधिकार का प्रयोग करते समय अपने तर्कसंगत दिमाग का इस्तेमाल करेगा।”

अदालत ने दर्शन सिंह मामले में निर्धारित सिद्धांतों पर बहुत भरोसा किया। फैसले में बूटा सिंह बनाम पंजाब राज्य, (1991) 2 SCC 612 के एक अंश का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था: “एक व्यक्ति जिसे मृत्यु या शारीरिक चोट की आशंका है, वह उस पल के आवेश में और परिस्थितियों की गर्मी में सुनहरे तराजू में यह नहीं तौल सकता कि हथियारों से लैस हमलावरों को निरस्त्र करने के लिए कितने घाव आवश्यक हैं।”

अंतिम निर्णय

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इन स्थापित सिद्धांतों को मामले के तथ्यों पर लागू करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला, “हमें निचली अदालत और हाईकोर्ट के फैसलों को रद्द करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। तदनुसार, हम अपीलकर्ता द्वारा की गई निजी रक्षा की दलील को स्वीकार करने के इच्छुक हैं।”

अपील स्वीकार कर ली गई, और अपीलकर्ता राकेश दत्त शर्मा को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। उनके जमानत बांड भी रद्द कर दिए गए।

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