भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 18 मार्च 2025 को एक अहम फैसले में कहा कि जब न्याय का सवाल हो, तो संवैधानिक अदालतें केवल तकनीकीताओं में न उलझें, बल्कि वास्तविक न्याय को प्राथमिकता दें। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्देश दिया कि वे आठ वर्षों तक सेवा देने वाले स्टेनोग्राफरों को उनका पूरा वेतन और ब्याज सहित भुगतान करें, जिन्हें बाद में सेवा से हटा दिया गया था।
यह मामला योगेश कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (सिविल अपील संख्या ___/2025) शीर्षक से सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत हुआ, जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने की।
मामले की पृष्ठभूमि
वर्ष 2002 में योगेश कुमार और छह अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति जिला न्यायालय, सहारनपुर में स्टेनोग्राफर के पद पर की गई थी। हालांकि उस समय केवल तीन पदों के लिए विज्ञापन जारी हुआ था, लेकिन सात लोगों की भर्ती कर ली गई। नियुक्तियों की समीक्षा के बाद यह पाया गया कि चार नियुक्तियाँ स्वीकृत पदों से अधिक थीं।

28 फरवरी 2005 को जिला न्यायाधीश ने योगेश कुमार सहित चार स्टेनोग्राफरों की सेवाएं समाप्त कर दीं। इसके बाद एक लंबी न्यायिक प्रक्रिया शुरू हुई:
- 2005 में सेवा समाप्ति के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर रिट याचिका (W.P. No. 43168/2005) वर्ष 2012 में खारिज कर दी गई।
- विशेष अपील (Special Appeal No. 1180/2012) भी खारिज हुई।
- सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका (SLP(C) No. 26959/2012) को खारिज करते हुए अपीलकर्ताओं को यह स्वतंत्रता दी कि वे वेतन की मांग के लिए “उपयुक्त सिविल कार्रवाई” करें।
इसके बाद अपीलकर्ताओं ने जिला न्यायाधीश को वेतन के लिए आवेदन किया, जो खारिज हो गया। इसके खिलाफ उन्होंने फिर से रिट याचिका (W.P. No. 26698/2015) और विशेष अपील (Special Appeal Defective No. 456/2019) दाखिल कीं, जो दोनों खारिज कर दी गईं।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या अनुच्छेद 226 के अंतर्गत वेतन की मांग वाली याचिका स्वीकार्य है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने “सिविल कार्रवाई” का सुझाव दिया था?
- क्या आठ वर्षों की वास्तविक सेवा के बदले वेतन न देना राज्य द्वारा अनुचित लाभ (Unjust Enrichment) है?
- “उपयुक्त सिविल कार्रवाई” की व्याख्या – क्या इसमें रिट याचिका शामिल है या नहीं?
सुप्रीम कोर्ट के विचार और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस व्याख्या से स्पष्ट असहमति जताई कि केवल दीवानी वाद ही “उपयुक्त सिविल कार्रवाई” के अंतर्गत आता है। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने अपने फैसले में कहा:
“संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत न्यायालय को अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए।”
कोर्ट ने कहा कि भले ही नियुक्तियाँ कुछ हद तक अनियमित रही हों, लेकिन यह तथ्य कि अपीलकर्ताओं ने आठ वर्षों तक कार्य किया, नकारा नहीं जा सकता। कोर्ट ने ABL International Ltd. बनाम ECGC of India Ltd. [(2004) 3 SCC 553] के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जब तथ्य निर्विवाद हों और शपथपत्रों से प्रमाणित हों, तो रिट याचिका के माध्यम से मौद्रिक दावा किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अन्य मामलों का भी हवाला दिया:
- Zonal Manager, Central Bank of India बनाम Devi Ispat Ltd. [(2010) 11 SCC 186]
- Popatrao Vyankatrao Patil बनाम State of Maharashtra [(2020) 19 SCC 241]
- Unitech Ltd. बनाम TSIIC [(2021) 16 SCC 35]
कोर्ट ने यह भी कहा:
“राज्य और उच्च न्यायालयों को आदर्श वादी (Model Litigant) की भूमिका निभानी चाहिए। हाईकोर्ट को ज़िला न्यायपालिका के कर्मचारियों के वेतन के मामलों में अत्यधिक तकनीकी रवैया नहीं अपनाना चाहिए, खासकर तब जब उन्होंने आठ वर्षों तक सेवा दी हो।”
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
- सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट के दिनांक 23 मई 2018 (एकल पीठ) और 16 मई 2019 (डिवीजन बेंच) के आदेशों को निरस्त कर दिया।
- उत्तर प्रदेश राज्य और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को आदेश दिया गया कि:
- योगेश कुमार और अन्य समान रूप से स्थित व्यक्तियों को आठ वर्षों के कार्यकाल का पूरा वेतन दिया जाए।
- वेतन की देय तिथि से 6% वार्षिक ब्याज जोड़ा जाए।
- भुगतान तीन महीने के भीतर किया जाए।
- योगेश कुमार और अन्य समान रूप से स्थित व्यक्तियों को आठ वर्षों के कार्यकाल का पूरा वेतन दिया जाए।
- कोर्ट ने योगेश कुमार को ₹1,00,000 की न्यायालयीन लागत (Costs) भी प्रदान की, जिसे लंबी न्यायिक प्रक्रिया को देखते हुए उचित ठहराया गया।
वकीलों की भूमिका
- अपीलकर्ताओं की ओर से: डॉ. एल.एस. चौधरी (वरिष्ठ अधिवक्ता)
- प्रतिवादियों की ओर से: श्री विशाल मेघवाल (इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लिए अधिवक्ता)