24 मार्च 2025 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए प्रेम संबंध के टूटने के बाद दायर बलात्कार के एक मुकदमे को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पाया कि आरोपों में बलात्कार जैसे गंभीर अपराध के आवश्यक तत्व नहीं थे और इस प्रकार की आपराधिक कार्रवाई न्याय प्रणाली के दुरुपयोग के समान है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला मद्रास हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर आपराधिक अपील के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। हाईकोर्ट ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत मुकदमा खारिज करने की याचिका को खारिज कर दिया था। याचिकाकर्ता S.C. No. 49 of 2022 में एरोड की महिला अदालत में अपने खिलाफ चल रहे मुकदमे को समाप्त करना चाहता था, जिसमें उस पर IPC की धारा 376 (बलात्कार) और 417 (धोखाधड़ी) के तहत आरोप लगाए गए थे।
प्राप्त बयानों के अनुसार, पीड़िता और आरोपी का संबंध पारिवारिक समारोह में मिलने के बाद शुरू हुआ था। दोनों के बीच लगातार संपर्क बना रहा और रिश्ता धीरे-धीरे अंतरंग हुआ। पीड़िता का कहना था कि वह अपनी दादी के साथ रहती थी और आरोपी उससे बार-बार मिलने आता था। पहली बार शारीरिक संबंध तब बना जब दोनों फिल्म देखने गए और फिर एक होटल में रुके। पीड़िता का दावा था कि वह चक्कर महसूस कर रही थी और उसकी इच्छा के विरुद्ध अचानक और अप्रत्याशित रूप से यौन संबंध बनाया गया। उसी के बाद आरोपी ने विवाह का वादा किया था।
इसके बाद भी दोनों की मुलाकातें होती रहीं और कथित रूप से होटल में फिर से संबंध बनाए गए। लेकिन जब पीड़िता ने विवाह की बात उठाई, तो आरोपी ने मना कर दिया और पहले यौन संबंध की मांग की। इसके बाद आरोपी ने संपर्क तोड़ दिया।
कानूनी दलीलें और सुनवाई
अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि पूरा रिश्ता परस्पर सहमति पर आधारित था और पहली बार संबंध बनाने से पहले विवाह का कोई झूठा वादा नहीं किया गया था। दोनों वयस्क थे और सहमति से संबंध में थे। वकील ने सुप्रीम कोर्ट के Prithivirajan बनाम राज्य (20 जनवरी 2025) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें ऐसे ही परिस्थितियों में आपराधिक मुकदमा खारिज किया गया था।
राज्य सरकार की ओर से विरोध में कहा गया कि आरोपों की सत्यता के लिए पूरा ट्रायल जरूरी है। पीड़िता के वकील ने तर्क दिया कि आरोपी ने विवाह का झूठा वादा किया, जिससे सहमति की वैधता पर सवाल खड़े होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने इस मामले पर फैसला सुनाया। कोर्ट ने पीड़िता की प्रथम सूचना रिपोर्ट और अन्य बयानों का विस्तार से परीक्षण किया।
कोर्ट ने कहा:
“जब तक धारा 376 IPC के अपराध के आवश्यक तत्व दस्तावेजों से स्पष्ट नहीं होते, मुकदमा जारी नहीं रखा जा सकता।”
कोर्ट ने माना कि पीड़िता ने आरोपी से कई बार मिलना स्वीकार किया था, जिसमें एक ही होटल में तीन बार ठहरना भी शामिल था। यह सब स्वेच्छा से और समय के साथ हुआ, जिससे संबंध की सहमति स्पष्ट होती है।
कोर्ट ने कहा:
“बयानों से यह स्पष्ट नहीं होता कि आरोपी ने पहले से विवाह का झूठा वादा कर सहमति प्राप्त की थी।”
विवाह का कथित वादा पहली बार शारीरिक संबंध बनने के बाद किया गया था, जिसे कोर्ट ने बाद की बात मानते हुए सहमति को प्रभावित करने वाला कारण नहीं माना।
कोर्ट ने कहा:
“अगर सहमति है, तो बलपूर्वक यौन संबंध नहीं कहा जा सकता। केवल धोखे या ज़बरदस्ती से सहमति ली गई हो तभी वह वैध नहीं मानी जा सकती।”
मगर इस मामले में आरोप कभी ज़बरदस्ती, कभी धोखे पर आधारित थे – जो परस्पर विरोधी और कमजोर माने गए।
कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा:
“हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दोनों पक्षों के अनुसार यौन संबंध सहमति से ही हुए थे।”
Prithivirajan केस का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:
“ऐसे हालात में आरोपी को ट्रायल का सामना करने देना न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, जिसे अनुमति नहीं दी जा सकती।”
अंतिम फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि:
- यौन संबंध से पहले कोई धोखे से विवाह का वादा नहीं था।
- पीड़िता की कहानी एक सहमति पर आधारित रिश्ते को दर्शाती है।
- यह मामला न्याय प्रक्रिया के दुरुपयोग का क्लासिक उदाहरण है।
कोर्ट ने कहा:
“यह वह मामला था जहाँ हाईकोर्ट को CrPC की धारा 482 के तहत अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए हस्तक्षेप करना चाहिए था। यह कार्यवाही नहीं चल सकती।”
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया और महिला कोर्ट, एरोड में लंबित S.C. No. 49 of 2022 की सारी कार्यवाही रद्द कर दी।
