सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के स्थायी भरण-पोषण अधिकारों की समीक्षा के लिए एमिकस क्यूरी की नियुक्ति की

एक अहम कदम उठाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद स्थायी भरण-पोषण (एलिमनी) देने के कानूनी प्रश्न पर विचार के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे को एमिकस क्यूरी (न्यायालय मित्र) नियुक्त किया है। यह मामला ‘मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939’ के तहत फैमिली कोर्ट द्वारा तलाकशुदा मुस्लिम महिला को स्थायी भरण-पोषण देने के अधिकार से जुड़ा है। न्यायालय यह भी विचार करेगा कि यदि महिला का पुनर्विवाह हो जाता है, तो क्या उस स्थायी भरण-पोषण में संशोधन किया जा सकता है।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने इस विषय की गंभीरता को रेखांकित करते हुए यह आदेश दिया। यह आदेश गुजरात हाईकोर्ट के 19 मार्च, 2020 के एक फैसले के खिलाफ दायर अपील की सुनवाई के दौरान आया। गुजरात हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें महिला को तलाक और 10 लाख रुपये की एकमुश्त स्थायी भरण-पोषण राशि प्रदान की गई थी।

READ ALSO  सुप्रीम कोर्ट ने नई दिशानिर्देश निर्धारित की: हाईकोर्ट सरकारी अधिकारियों को बुलाने से पहले वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग को प्राथमिकता दें

फरवरी की सुनवाई में न्यायालय ने पक्षकारों को ‘मो. अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य’ (2024) के फैसले का उल्लेख करने को कहा था, जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम महिलाओं को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का अधिकार है। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने ‘दानियाल लतीफी बनाम भारत संघ’ के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए उचित और न्यायसंगत प्रावधान करना होगा, जिसमें भरण-पोषण भी शामिल है।

यह मामला मूल रूप से गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जेबी पारडीवाला और न्यायमूर्ति वीरेशकुमार मायाणी की पीठ द्वारा तय किया गया था, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के तलाक के बाद के अधिकारों और दावों से जुड़ी कई कानूनी पेचिदगियों पर विचार किया गया था। हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि मुस्लिम महिला को तलाक के बाद ‘इद्दत’ की अवधि के दौरान और उसके बाद भी न्यायसंगत भरण-पोषण मिलना चाहिए, चाहे उसका पुनर्विवाह हुआ हो या नहीं। यह अधिकार ‘मुस्लिम महिला (तलाक के बाद अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986’ के तहत मिलता है।

इस मामले में एक और महत्वपूर्ण कानूनी पहलू यह है कि फैमिली कोर्ट्स अधिनियम, 1984 मुस्लिम विवाह विवादों के संदर्भ में किस प्रकार समन्वय स्थापित करता है और मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष रूप से एक कानूनी ढांचा उपलब्ध कराता है।

READ ALSO  दिल्ली हाईकोर्ट ने एलोपैथ डॉक्टरों को अनिवार्य रूप से दिल्ली मेडिकल काउंसिल के साथ पंजीकृत होने का निर्देश देने वाली जनहित याचिका को खारिज कर दिया

इस मामले की अगली सुनवाई 15 अप्रैल को निर्धारित है, जहां इन कानूनी प्रश्नों पर गहन विचार किया जाएगा। इससे तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण अधिकारों की व्याख्या और उनका कानूनी ढांचा नए रूप में सामने आ सकता है।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles