कोर्ट्स न्याय सुनिश्चित करने के लिए राहत को ढाल सकते हैं, लेकिन सतर्कता जरूरी: सुप्रीम कोर्ट ने समझाए सिद्धांत

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम फैसले में स्पष्ट किया कि दीवानी मामलों में “राहत को ढालने” (moulding of relief) की प्रक्रिया किन सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। कोर्ट ने यह टिप्पणी उस फैसले को बरकरार रखते हुए की, जिसमें एक वसीयत के निष्पादक को ज़मीन का स्वामित्व दिया गया, जबकि मुकदमा एक ट्रस्ट द्वारा दायर किया गया था। कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश न्याय को पूरा करने के लिए राहत को ढाल सकते हैं, लेकिन यह शक्ति बहुत सावधानी से और कानून की सीमाओं में रहते हुए प्रयोग की जानी चाहिए, जिससे किसी पक्ष को नुकसान न हो।

मामला

यह विवाद तमिलनाडु की 0.75 सेंट ज़मीन को लेकर था, जो कई पीढ़ियों से चली आ रही कानूनी लड़ाई का हिस्सा थी। यह ज़मीन 1929 में सोम्मासुंदरम चेट्टियार ने खरीदी थी। उनकी भतीजी पद्मिनी चंद्रशेखरन ने 1952 में अपने पिता एन. सेल्वाराजालु चेट्टी की संपत्ति में हिस्सेदारी के लिए मुकदमा दायर किया था, जिसमें उन्हें जीत मिली। 1962 में अदालत के आदेश से संपत्ति की नीलामी हुई और पद्मिनी ने यह ज़मीन खरीद ली, जिसके लिए 1963 में विक्रय विलेख (sale deed) भी तैयार हुआ।

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1980 में पद्मिनी का निधन हो गया। उन्होंने 1975 में वसीयत की थी, जिसमें यह ज़मीन ट्रस्ट को नहीं, बल्कि विनायगमूर्ति और उनके बच्चों को दी गई थी। लेकिन 1992 में सोम्मासुंदरम के दत्तक पुत्र एस. सर्वोथमन ने उसी ज़मीन को तीसरे से छठे प्रतिवादियों (जैसे कि जे. गणपथा) को बेच दिया। इन खरीदारों ने कहा कि उन्हें पूर्व दावों की जानकारी नहीं थी। ट्रस्ट ने 1998 में सिविल सूट नं. 504 दायर किया, जिसमें 1992 की बिक्री को रद्द करने और ज़मीन वापस पाने की मांग की गई।

कानूनी सवाल

इस मामले में कई अहम कानूनी प्रश्न उठे:

  1. क्या पद्मिनी ने 1962 की नीलामी के जरिए वैध स्वामित्व प्राप्त किया था?
  2. क्या दत्तक पुत्र को ज़मीन विरासत में मिल सकती थी और वह 1992 में उसे बेच सकता था?
  3. क्या मुकदमा ट्रस्ट द्वारा दायर किया जाना वैध था, या वसीयत के निष्पादक को ही करना चाहिए था?
  4. क्या ट्रस्ट द्वारा दायर मामले में कोर्ट वसीयत के निष्पादक को राहत दे सकता है?
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सुप्रीम कोर्ट का फैसला

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने मद्रास हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश और खंडपीठ के फैसलों को बरकरार रखते हुए 1992 की बिक्री को अमान्य घोषित किया और निर्देश दिया कि संपत्ति पद्मिनी की वसीयत के अनुसार संचालित की जाए।

हालांकि तकनीकी रूप से ट्रस्ट का ज़मीन पर कोई दावा नहीं था, कोर्ट ने वसीयत के निष्पादक डॉ. एच.बी.एन. शेट्टी को लाभार्थियों की ओर से कार्य करने की अनुमति दी।

अपीलकर्ताओं के इस तर्क को खारिज करते हुए कि एक त्रुटिपूर्ण मामले में कोर्ट राहत नहीं ढाल सकता, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया:

“राहत को ढालने की अवधारणा का अर्थ है कि अदालत परिस्थिति के अनुसार राहत को संशोधित कर सकती है… लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा कोई आश्चर्य या पूर्वाग्रह न हो जिससे प्रतिवादी पक्ष को नुकसान पहुंचे। यह एक अपवाद है, न कि सामान्य नियम।”

विवेक की भी सीमाएं हैं

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कोर्ट ने दोहराया कि राहत को ढालने की शक्ति विवेक और न्यायसंगतता पर आधारित है, लेकिन इसकी सीमाएं हैं। अदालतों को संयम बरतना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संशोधित राहत न्यायिक प्रक्रिया या प्रक्रिया की निष्पक्षता को न तोड़े।

कोर्ट ने कहा कि इस मामले में यदि निष्पादक को एक नया मुकदमा दायर करने को कहा जाता, तो मामला अनावश्यक रूप से लंबा हो जाता और वसीयत की मंशा व्यर्थ हो जाती।

अंततः सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे से छठे प्रतिवादियों द्वारा दायर अपील खारिज कर दी और निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखा। साथ ही, अपीलकर्ताओं को मद्रास हाई कोर्ट की लीगल एड सर्विसेज अथॉरिटी को चार सप्ताह के भीतर ₹1,00,000 की लागत राशि चुकाने का निर्देश दिया गया।

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