शादी करने के वादे के हर उल्लंघन को बलात्कार मानना ​​मूर्खता होगी – सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आरोपमुक्ति आदेश को बरकरार रखा

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली  हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया है, जिसमें याचिकाकर्ता जसपाल सिंह कौड़ल के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) और 506 (आपराधिक डराने-धमकाने) के तहत आरोप बहाल कर दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पक्षकारों के बीच शारीरिक संबंध आपसी सहमति से बने थे और यह किसी झूठे विवाह के वादे के कारण नहीं था। इसी आधार पर न्यायालय ने सेशंस कोर्ट द्वारा पारित आरोपमुक्ति (डिस्चार्ज) आदेश को पुनः बहाल कर दिया। यह निर्णय न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ द्वारा सुनाया गया।

पृष्ठभूमि

यह मामला थाना सागरपुर में दर्ज एफआईआर संख्या 281/2021 से उत्पन्न हुआ था, जो 5 जून 2021 को दर्ज हुई थी। यह प्राथमिकी शिकायतकर्ता (प्रतिकर्ता संख्या 2) की ओर से दर्ज कराई गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता ने विवाह का वादा कर उनसे शारीरिक संबंध बनाए और उनके दो बच्चों की देखभाल करने का वादा किया। कथित रूप से यह संबंध वर्ष 2016 में शुरू हुआ और मई 2021 तक चलता रहा। शिकायतकर्ता ने यह भी कहा कि उन्होंने याचिकाकर्ता के आश्वासनों के आधार पर अपने पति से तलाक ले लिया।

यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता की शिकायतकर्ता से पहली मुलाकात वर्ष 2017 में द्वारका में अपने भाई के किराए के मकान पर हुई थी, जहां उसने विवाह के झूठे वादे पर शारीरिक संबंध बनाए और बाद में विवाह से इनकार करने पर उनके बच्चों को जान से मारने की धमकी दी।

याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 और 506 के तहत आरोप लगाए गए। हालांकि, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 227 के तहत आरोपमुक्ति के लिए आवेदन किया, जिसे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 8 जून 2023 को स्वीकार कर लिया।

बाद में दिल्ली  हाईकोर्ट ने 3 जनवरी 2024 को इस आरोपमुक्ति आदेश को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप तय करने के निर्देश दिए। इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से: याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि संबंध आपसी सहमति से बने थे और किसी झूठे वादे से प्रेरित नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि जब यह संबंध शुरू हुआ तब शिकायतकर्ता अपने वैवाहिक जीवन में थीं और वे अपनी कार्रवाई की प्रकृति और परिणामों को समझती थीं। यदि कोई विवाह का वादा किया भी गया था तो वह शुरू से ही बेईमानी की मंशा से नहीं किया गया था।

प्रतिकर्ता (शिकायतकर्ता) की ओर से: शिकायतकर्ता ने कहा कि उनकी सहमति केवल इस आधार पर दी गई थी कि याचिकाकर्ता ने विवाह का वादा किया था और उनके बच्चों को सहारा देने की बात कही थी। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने इसी वादे पर विश्वास करके अपने पति से तलाक लिया और यह आचरण झूठे प्रलोभन के दायरे में आता है, इसलिए यह बलात्कार की श्रेणी में आता है।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय ने नईम अहमद बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली), ([2023] 15 SCC 385) में दिए गए अपने पूर्ववर्ती निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि किसी झूठे वादे और साधारण वादे के उल्लंघन में स्पष्ट अंतर किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा:

“यह मूर्खता होगी कि हर विवाह के वादे के उल्लंघन को झूठा वादा मान लिया जाए और व्यक्ति को धारा 376 के तहत अभियोजित किया जाए।”

तथ्यों और साक्ष्यों का परीक्षण करते हुए न्यायालय ने कहा:

  • याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच शारीरिक संबंध शुरुआत से ही आपसी सहमति से थे।
  • कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला जिससे यह कहा जा सके कि कोई बेईमान प्रलोभन या दबाव था।
  • याचिकाकर्ता द्वारा अपने नाम के अक्षरों वाला मंगलसूत्र खरीदना विवाह की वास्तविक मंशा दर्शाता है, न कि कोई छल।
  • शिकायतकर्ता ने पांच वर्षों तक संबंध बनाए रखा, वह भी अपने वैवाहिक जीवन के दौरान, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कोई भ्रम या दबाव नहीं था।
  • साथ ही, धारा 506 IPC के अंतर्गत आपराधिक धमकी का कोई प्रमाण नहीं पाया गया।

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोप तय करने के चरण में न्यायालयों को केवल यह देखना होता है कि क्या रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से आरोपित अपराध की आवश्यक तत्वों की उपस्थिति स्पष्ट होती है। दिल्ली  हाईकोर्ट ने आरोपमुक्ति आदेश को रद्द करते समय तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण करके अपने पुनरीक्षण अधिकार की सीमा का अतिक्रमण किया।

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निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सत्र न्यायालय ने CrPC की धारा 227 के तहत उचित रूप से अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए याचिकाकर्ता को आरोपमुक्त किया। न्यायालय ने कहा:

“FIR, चार्जशीट और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत सामग्री की सामान्य समीक्षा से स्पष्ट होता है कि धारा 375/506 IPC के अपराधों के तत्व स्थापित नहीं होते।”

इसलिए, अपील को स्वीकार किया गया, 3 जनवरी 2024 का दिल्ली  हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया गया और 8 जून 2023 का आरोपमुक्ति आदेश बहाल किया गया। साथ ही, FIR संख्या 281/2021 से उत्पन्न आपराधिक कार्यवाही को समाप्त कर दिया गया।

प्रकरण का नाम: जसपाल सिंह कौड़ल बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) एवं अन्य,
क्रिमिनल अपील संख्या: ___ / 2025,
SLP (क्रि.) संख्या: 4007 / 2024 से उत्पन्न,

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