सुप्रीम कोर्ट ने 29 अक्टूबर, 2025 के एक महत्वपूर्ण फैसले में, हत्या और हत्या के प्रयास के लिए तीन लोगों की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास को बरकरार रखा है। कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 149 के तहत ‘प्रतिनिधिक दायित्व’ (Vicarious Liability) के सिद्धांत को लागू करते हुए यह निर्णय सुनाया।
जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली अपीलों को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) द्वारा अपीलकर्ताओं को बरी करने के फैसले को पलट दिया था। हाईकोर्ट ने पाया था कि वे एक ‘गैरकानूनी जनसमूह’ (Unlawful Assembly) के सदस्य थे, जिसका ‘सामान्य उद्देश्य’ (Common Object) हत्या करना था, भले ही उन्होंने खुद घातक वार न किया हो।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को बरकरार रखते हुए स्पष्ट किया कि सशस्त्र हमलावरों को अपराध स्थल तक पहुँचाना और हमले में भाग लेना ‘सक्रिय भागीदारी’ (Active Participation) है, न कि केवल ‘मूक उपस्थिति’।
यह अपीलें हरिभाऊ उर्फ भाऊसाहेब दिनकर खरुसे (आरोपी संख्या 3), राजू उर्फ राजेंद्र भिवराव शिरवाले (आरोपी संख्या 4), और सुभाष रघुनाथ पवार (आरोपी संख्या 6) द्वारा दायर की गई थीं।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष का यह मामला पुणे जिले के कारी गांव में 1999 में हुई घटनाओं से संबंधित है। 26 अप्रैल 1999 को एक शादी समारोह के दौरान, अंकुश घोलप पर पंढरीनाथ देवबा घोलप (आरोपी संख्या 1) के भाई ने हमला किया था, जिसकी शिकायत अंकुश ने उसी रात पुलिस में दर्ज कराई।
अगले दिन, 27 अप्रैल 1999 को, अंकुश और कुछ अन्य लोग (PW-7 और PW-9) एक जीप में लौट रहे थे, जिसे सोपान दगडू घोलप (PW-1) चला रहे थे। तभी, दो मोटरसाइकिलों ने उन्हें रोका।
पहली बाइक आरोपी संख्या 3 (हरिभाऊ) चला रहा था, जिस पर मुख्य आरोपी (आरोपी 1 और 2) बैठे थे। दूसरी बाइक आरोपी संख्या 4 (राजू) चला रहा था, जिस पर आरोपी संख्या 5 और 6 (सुभाष) बैठे थे।
गवाहों के अनुसार, आरोपी संख्या 3 ने जीप की चाबियां निकाल लीं। इसके बाद सभी आरोपियों ने अंकुश और अन्य लोगों को जीप से बाहर घसीट लिया। आरोपी 1 और 2 ने अंकुश पर धारदार हथियारों से हमला किया, जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गई। इस हमले में दो अन्य गवाह (PW-7 और PW-9) भी गंभीर रूप से घायल हो गए।
अदालती कार्यवाही: बरी से दोषसिद्धि तक
पुणे के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 18 मई 2001 को फैसला सुनाया। ट्रायल कोर्ट ने मुख्य हमलावरों (आरोपी 1 और 2) को हत्या (धारा 302) और हत्या के प्रयास (धारा 307) का दोषी पाया।
हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने आरोपी 3 (हरिभाऊ) और 4 (राजू) को अपर्याप्त सबूतों के आधार पर बरी कर दिया। आरोपी 6 (सुभाष) को केवल हत्या के प्रयास के लिए दोषी ठहराया गया, लेकिन उसे हत्या के ‘सामान्य उद्देश्य’ (धारा 302/149) के आरोप से बरी कर दिया गया।
महाराष्ट्र राज्य ने इन बरी फैसलों के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने 2 फरवरी, 2011 को अपने फैसले में राज्य की अपील को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया। हाईकोर्ट ने इन तीनों अपीलकर्ताओं (आरोपी 3, 4, और 6) को भी हत्या और हत्या के प्रयास के सामान्य उद्देश्य में शामिल मानते हुए दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ताओं की दलीलें: अपीलकर्ताओं के वकीलों ने तर्क दिया कि धारा 149 (गैरकानूनी जनसमूह) के तत्व पूरे नहीं हुए, क्योंकि 5 लोग शामिल नहीं थे। यह भी तर्क दिया गया कि हाईकोर्ट को बरी करने के ‘उचित दृष्टिकोण’ (plausible view) में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। उनकी मुख्य दलील यह थी कि उनका इरादा हत्या का नहीं, बल्कि केवल चोट पहुँचाने का हो सकता है।
राज्य की दलीलें: राज्य सरकार ने तर्क दिया कि दोषसिद्धि घायल चश्मदीद गवाहों (PW-7 और PW-9) के “सुसंगत और विश्वसनीय” बयानों पर आधारित थी, जिनकी पुष्टि मेडिकल साक्ष्यों से भी होती है। राज्य ने मसाल्ती बनाम यूपी (1965) मामले का हवाला देते हुए कहा कि एक बार सामान्य उद्देश्य स्थापित हो जाने के बाद, “प्रत्येक सदस्य समान रूप से दोषी होता है, भले ही घातक वार किसी और ने किया हो।” राज्य ने कहा कि सशस्त्र हमलावरों को ले जाकर, अपीलकर्ताओं ने “हत्या की सुविधा दी और वे सामान्य उद्देश्य में शामिल थे।”
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस विपुल एम. पंचोली द्वारा लिखे गए फैसले में, पीठ ने कहा कि बरी करने के फैसले को पलटा जा सकता है यदि वह “सबूतों के मौलिक गलत मूल्यांकन” (fundamental misappreciation of evidence) पर आधारित हो। पीठ ने पाया कि ट्रायल कोर्ट का फैसला “अस्थिर” (unsustainable) था।
साक्ष्यों पर टिप्पणी: कोर्ट ने पाया कि चश्मदीद गवाहों की गवाही “स्वाभाविक, सुसंगत और परस्पर पुष्टिकारक” थी। मेडिकल साक्ष्यों ने भी “हमले की क्रूर और समन्वित प्रकृति” की पुष्टि की, जिससे यह साबित हुआ कि यह एक सुनियोजित हमला था।
‘सामान्य उद्देश्य’ पर निष्कर्ष: कोर्ट ने अपीलकर्ताओं की इस दलील को खारिज कर दिया कि उनका इरादा केवल चोट पहुँचाने का था। फैसले में कहा गया: “इस्तेमाल किए गए हथियारों की प्रकृति, हमले की क्रूरता और सटीकता, यह स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि जनसमूह का सामान्य उद्देश्य केवल चोट पहुँचाने से कहीं अधिक था और इसमें हत्या करना शामिल था।”
कोर्ट ने अपीलकर्ताओं की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा: “साक्ष्य स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि अपीलकर्ता केवल मूक दर्शक नहीं थे, बल्कि एक सुनियोजित हमले में सक्रिय भागीदार और सूत्रधार (active participants and facilitators) थे। उनका आचरण… धारा 302 और 307 सहपठित धारा 149 आईपीसी के तहत उनके सामान्य इरादे और प्रतिनिधिक दायित्व को स्थापित करता है।”
अंतिम निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष ने “संदेह से परे यह साबित कर दिया है कि तीनों अपीलकर्ता एक गैरकानूनी जनसमूह के सदस्य थे, जिनका सामान्य उद्देश्य हत्या और गंभीर हमला करना था।”
पीठ ने हाईकोर्ट द्वारा दर्ज की गई दोषसिद्धि में कोई त्रुटि नहीं पाई और ट्रायल कोर्ट के बरी करने के फैसले को “अस्थिर” माना। कोर्ट ने आदेश दिया, “तदनुसार, इस कोर्ट को वर्तमान अपीलों में कोई योग्यता नहीं मिली। अपीलकर्ताओं (आरोपी 3, 4, और 6) को दी गई सजा और दोषसिद्धि की पुष्टि की जाती है। अपीलों को योग्यता रहित होने के कारण खारिज किया जाता है।”




