भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 301 की परिभाषा स्पष्ट की है, जो ‘ट्रांसमाइग्रेशन ऑफ मोटिव’ या ‘डॉक्ट्रिन ऑफ ट्रांसफर ऑफ मैलिस’ से संबंधित है। आशोक सक्सेना बनाम उत्तराखंड राज्य (क्रिमिनल अपील संख्या 1704-1705/2015) मामले में, शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति को दोषसिद्ध किया जा सकता है, भले ही जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई हो, वह आरोपी का मूल लक्ष्य न रहा हो।
यह निर्णय इस सिद्धांत को रेखांकित करता है कि यदि आरोपी जानबूझकर ऐसा कार्य करता है जिससे मृत्यु होने की संभावना होती है, तो उसकी आपराधिक ज़िम्मेदारी केवल लक्षित व्यक्ति तक सीमित नहीं रहती।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 25 जून 1992 को उत्तराखंड के नैनीताल जिले के किच्छा स्थित हाइडल कॉलोनी में हुई एक घटना से जुड़ा है। अभियोजन पक्ष के अनुसार, आशोक सक्सेना और उनके सह-आरोपी यशपाल सिंह (अब मृत) का शिकायतकर्ता के परिवार के साथ विवाद हुआ था। यह विवाद बढ़ते-बढ़ते हिंसा में बदल गया, जब सक्सेना और सिंह शिकायतकर्ता हेतराम के घर में घुस आए और उन पर हमला कर दिया।
झगड़े के दौरान, हेत्राम की पत्नी बीच-बचाव करने आईं, जिस पर आशोक सक्सेना ने उनके पेट में चाकू घोंप दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। अभियोजन पक्ष का तर्क था कि भले ही सक्सेना का इरादा मृतका को मारने का न रहा हो, लेकिन उनकी हरकत ‘कुल्पेबल होमिसाइड’ (गैर-इरादतन हत्या) की श्रेणी में आती है।
न्यायिक प्रक्रिया
- ट्रायल कोर्ट (नैनीताल के द्वितीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश) ने 6 नवंबर 1996 को साक्ष्यों की कमी का हवाला देते हुए सक्सेना और सिंह दोनों को बरी कर दिया।
- उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए 14 जुलाई 2010 को आशोक सक्सेना को IPC की धारा 302 (हत्या) के तहत दोषी करार दिया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
- सक्सेना ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
कानूनी मुद्दे
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या आरोपी का कृत्य धारा 302 (हत्या) के अंतर्गत आएगा या धारा 304 (गैर-इरादतन हत्या) के अंतर्गत?
सक्सेना की ओर से बचाव पक्ष ने निम्नलिखित दलीलें दीं:
- मृतका (हेत्राम की पत्नी) को मारने का आरोपी का कोई स्पष्ट इरादा नहीं था।
- हत्या पूर्व नियोजित नहीं थी, इसलिए इसे हत्या (Murder) की जगह गैर-इरादतन हत्या (Culpable Homicide) माना जाना चाहिए।
- घटना को 33 वर्ष बीत चुके हैं और आरोपी की उम्र 74 वर्ष हो चुकी है, इसलिए सजा में नरमी बरती जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
30 जनवरी 2025 को न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने यह फैसला सुनाया।
कोर्ट ने IPC की धारा 301 को लागू करते हुए कहा:
“यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का इरादा किए बिना, लेकिन यह जानते हुए कि उसके कार्य से मृत्यु हो सकती है, किसी की मृत्यु कर देता है, तो यह गैर-इरादतन हत्या के समान होगा, मानो मृत्यु उसी व्यक्ति की हुई हो, जिसे मारने का उसने इरादा किया था।”
कोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
- इरादतन हत्या (Murder) के लिए सीधा इरादा आवश्यक नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति एक व्यक्ति को मारने के उद्देश्य से हमला करता है लेकिन कोई अन्य व्यक्ति मारा जाता है, तो भी वह अपराध हत्या की श्रेणी में आ सकता है।
- पूर्व मामलों का हवाला दिया गया, जैसे ग्यानेंद्र कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 1972 SC 502) और जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (AIR 1991 SC 982), जिसमें यह सिद्ध किया गया कि आरोपी इस आधार पर दंड से नहीं बच सकता कि असली पीड़ित उसकी मंशा में नहीं था।
- ट्रांसफर ऑफ मैलिस सिद्धांत लागू होता है, अर्थात जब कोई व्यक्ति एक खतरनाक कार्य करता है, तो अपराध उसके मूल लक्ष्य तक सीमित नहीं रहता।
दोषसिद्धि में संशोधन
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने धारा 301 IPC के तहत दोषसिद्धि को सही ठहराया, लेकिन उसने यह भी पाया कि यह मामला धारा 300 IPC के अपवाद 4 के अंतर्गत आता है।
इसका अर्थ यह है कि यदि हत्या अचानक लड़ाई या उकसावे के कारण हुई हो और पूर्व नियोजित न हो, तो सजा को कम किया जा सकता है।
अंतिम निर्णय:
- सुप्रीम कोर्ट ने सक्सेना की धारा 302 (हत्या) के तहत दोषसिद्धि को बदलकर धारा 304 भाग-1 (गैर-इरादतन हत्या) कर दिया।
- सजा को घटाकर पहले से बिताई गई अवधि (लगभग 6 वर्ष) कर दिया, जिससे आरोपी को अब और जेल में नहीं रहना होगा।
- कोर्ट ने आरोपी की उम्र और लंबे समय तक मुकदमे की स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया।