भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि वादी के स्वामित्व पर कोई विवाद नहीं है, तो केवल निषेधाज्ञा का दावा (Suit for Injunction Simpliciter) बिना घोषणा राहत (Declaratory Relief) के भी वैध है। यह फैसला 6 जनवरी, 2025 को सिविल अपील संख्या 159/2025 के मामले में दिया गया, जिसमें अपीलकर्ता कृष्ण चंद्र बेहेरा और अन्य बनाम उत्तरदाता नारायण नायक और अन्य शामिल थे। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने ओडिशा हाईकोर्ट के निर्णय को रद्द करते हुए मामले को पुनः विचार हेतु वापस भेज दिया।
पृष्ठभूमि
यह विवाद एक कृषि भूमि से संबंधित था, जिस पर वादियों ने स्वामित्व का दावा किया और कहा कि यह निर्विवाद है। उन्होंने ट्रायल कोर्ट में शीर्षक वाद संख्या 174/1983 दायर किया, जिसमें उन्होंने निम्नलिखित मांगे कीं:
1. स्थायी निषेधाज्ञा: प्रतिवादियों को उक्त भूमि में प्रवेश करने या उसमें हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए।
2. अस्थायी निषेधाज्ञा: लंबित वाद के दौरान खड़ी फसल को काटने से रोकने के लिए।
3. अन्य सहायक राहतें।
ट्रायल कोर्ट ने वादियों के पक्ष में निर्णय दिया और निषेधाज्ञा प्रदान की। इस फैसले को पहले अपीलीय न्यायालय ने भी कायम रखा। हालांकि, प्रतिवादियों ने ओडिशा हाईकोर्ट में नियमित द्वितीय अपील संख्या 38/2019 दायर की और कई कानूनी प्रश्न उठाए।
हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए कहा कि वादियों द्वारा घोषणा राहत शामिल न करना उनके दावे को अवैध बना देता है। इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित कानूनी मुद्दों की पहचान की:
1. केवल निषेधाज्ञा का दावा (Injunction Simpliciter) की स्वीकार्यता:
जब स्वामित्व और कब्जे पर प्रतिद्वंद्वी दावे हों, तो क्या बिना स्वामित्व की घोषणा की प्रार्थना के स्थायी निषेधाज्ञा का दावा स्वीकार्य है?
2. विवादित दस्तावेजों की व्याख्या:
क्या विवादित विक्रय विलेख को अदालतों द्वारा सही तरीके से पूर्ण विक्रय माना गया, या वह शर्तों के साथ गिरवी रखा गया था?
3. कब्जा और इसका कानूनी प्रभाव:
क्या हाईकोर्ट ने वादियों के कब्जे के महत्व को सही तरीके से संबोधित किया, जो निषेधाज्ञा के अधिकार को निर्धारित करता है?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने इन मुद्दों पर विस्तृत टिप्पणी की:
1. केवल निषेधाज्ञा के दावे पर:
पीठ ने पुनः पुष्टि की कि यदि प्रतिवादी वादियों के स्वामित्व को विवादित नहीं करते हैं, तो घोषणा राहत की अनुपस्थिति केवल निषेधाज्ञा के दावे को अवैध नहीं बनाती। अदालत ने कहा:
“यह कानून में स्थापित है कि यदि प्रतिवादी वादियों के स्वामित्व पर विवाद नहीं करते, तो केवल इस आधार पर दावा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि वादियों ने स्वामित्व की घोषणा की प्रार्थना नहीं की।”
2. कब्जे पर हाईकोर्ट की अनदेखी:
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की आलोचना की कि उसने भूमि पर कब्जे के सवाल को संबोधित नहीं किया। अदालत ने कहा:
“हाईकोर्ट ने यह नहीं बताया कि वादियों के पास भूमि का कब्जा है या नहीं। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो पक्षों के अधिकारों को प्रभावित करता है।”
3. कानूनी मुद्दों का विश्लेषण करने में असफलता:
पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने यह विश्लेषण नहीं किया कि विवादित विलेख पूर्ण विक्रय था या शर्तों के साथ गिरवी। अदालत ने कहा:
“संबंधित परिस्थितियों और ऐसे विवादों को नियंत्रित करने वाले स्थापित कानूनों की अनदेखी की गई।”
4. घोषणा राहत की भूमिका:
अदालत ने स्पष्ट किया कि घोषणा राहत केवल तभी आवश्यक है जब स्वामित्व विवादित हो। चूंकि इस मामले में प्रतिवादियों ने वादियों के स्वामित्व को स्पष्ट रूप से चुनौती नहीं दी थी, केवल निषेधाज्ञा का दावा स्वीकार्य था।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया और मामले को पुनः विचार के लिए वापस भेज दिया। अदालत ने हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह तीन महीने के भीतर अपील का निपटारा करे और सभी महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करे।
अदालत ने कहा:
“हाईकोर्ट ने द्वितीय अपील का निपटारा कानून के अनुसार नहीं किया और विवाद से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करने में विफल रहा।”