भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि हाईकोर्ट केवल असाधारण मामलों में ही किसी आरोपी के डिस्चार्ज (मुक्ति) आदेश पर रोक लगा सकता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ट्रायल कोर्ट द्वारा डिस्चार्ज किया गया आरोपी, पूर्ण रूप से मुकदमा लड़कर बरी हुए व्यक्ति की तुलना में भी उच्च कानूनी दर्जा रखता है। यह फैसला जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्जल भुयान की पीठ ने सुदर्शन सिंह वज़ीर बनाम राज्य (NCT दिल्ली) मामले में सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता सुदर्शन सिंह वज़ीर पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व विधान परिषद सदस्य और जम्मू-कश्मीर गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अध्यक्ष की हत्या से जुड़े एक मामले में आरोप लगाए गए थे। उनके खिलाफ IPC की धारा 302 (हत्या), 201 (सबूत नष्ट करना), 34 (सामान्य आशय), 120B (आपराधिक साजिश) और आर्म्स एक्ट के तहत आरोप लगाए गए थे। उनका नाम इस मामले में केवल तीसरे पूरक चार्जशीट में जोड़ा गया था।
20 अक्टूबर 2023 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मामले में वज़ीर को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया, क्योंकि उनके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे। डिस्चार्ज के बाद उन्हें ₹25,000 के निजी बॉन्ड और समान राशि की जमानत पर रिहा कर दिया गया।
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हालांकि, दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में इस डिस्चार्ज आदेश को चुनौती दी और इसे स्थगित करने की मांग की। 21 अक्टूबर 2023 को, हाईकोर्ट ने वज़ीर को सुने बिना डिस्चार्ज आदेश पर एकतरफा रोक (ex-parte stay) लगा दी। बाद में, 4 नवंबर 2024 को, हाईकोर्ट ने वज़ीर को आत्मसमर्पण (surrender) करने और न्यायिक हिरासत में जाने का निर्देश दिया, यह कहते हुए कि डिस्चार्ज आदेश पर लगी रोक का मतलब है कि वे कानूनी रूप से अब भी आरोपी हैं।
मुख्य कानूनी मुद्दे
- क्या हाईकोर्ट ट्रायल कोर्ट के डिस्चार्ज आदेश पर रोक लगा सकता है, जब तक पुनरीक्षण (revision) याचिका लंबित हो?
- CrPC की धारा 397 और 401 के तहत हाईकोर्ट की पुनरीक्षण शक्ति की सीमा क्या है?
- क्या CrPC की धारा 390, जो बरी हुए आरोपी को हिरासत में लेने की अनुमति देती है, डिस्चार्ज मामलों में लागू होती है?
- क्या दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश, जिसमें वज़ीर को आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया था, कानूनी रूप से वैध था?
सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए कहा कि डिस्चार्ज आदेश पर रोक लगाना एक कठोर कदम है, जिससे बिना किसी कानूनी समीक्षा के आरोपी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही फिर से शुरू हो जाती है।
“डिस्चार्ज आदेश पर रोक लगाना एक अत्यधिक कठोर आदेश है, जो आरोपी की स्वतंत्रता को खत्म कर सकता है। डिस्चार्ज आदेश पर रोक लगाने से मुकदमा फिर से शुरू हो सकता है, जो अपने आप में अंतिम राहत प्रदान करने के समान है,” अदालत ने कहा।
अदालत ने आगे कहा कि डिस्चार्ज आदेश से मुक्त हुआ व्यक्ति, एक बरी हुए व्यक्ति की तुलना में भी मजबूत कानूनी स्थिति में होता है।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट को CrPC की धारा 397 के तहत रोक लगाने की शक्ति तो है, लेकिन यह केवल “अत्यंत दुर्लभ और असाधारण मामलों” में ही किया जाना चाहिए, जब डिस्चार्ज आदेश स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण (ex-facie perverse) हो।
“केवल उन्हीं मामलों में, जहां डिस्चार्ज आदेश स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण हो, हाईकोर्ट इसे रोकने का कदम उठा सकता है। लेकिन, यह आदेश केवल आरोपी को सुनने के बाद ही दिया जाना चाहिए,” सुप्रीम कोर्ट ने कहा।
CrPC की धारा 390 का डिस्चार्ज मामलों में उपयोग
सुप्रीम कोर्ट ने CrPC की धारा 390 की व्याख्या करते हुए कहा कि यह धारा मुख्य रूप से अपील के दौरान बरी हुए व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित कराने के लिए लागू होती है। हालांकि, यदि इसे किसी डिस्चार्ज मामले में लागू किया जाता है, तो इसे सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए।
“CrPC की धारा 390 के तहत यदि कोई आदेश पारित किया जाता है, तो सामान्य नियम यही होना चाहिए कि आरोपी को जेल भेजने के बजाय उसे जमानत पर रिहा किया जाए। हमारी न्याय प्रणाली में यह स्थापित नियम है कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद’।”
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
अपने निष्कर्षों के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के 21 अक्टूबर 2023 और 4 नवंबर 2024 के आदेशों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल डिस्चार्ज आदेश पर रोक लगने से आरोपी को जेल नहीं भेजा जा सकता।
हालांकि, सावधानी के तौर पर, कोर्ट ने वज़ीर को चार सप्ताह के भीतर सत्र न्यायालय में नई जमानत जमा करने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य निर्देश:
- हाईकोर्ट का डिस्चार्ज आदेश पर लगाया गया एकतरफा रोक (stay) रद्द किया गया।
- वज़ीर को चार सप्ताह के भीतर सत्र न्यायालय में नई जमानत जमा करने का निर्देश दिया गया।
- हाईकोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह पुनरीक्षण याचिका का जल्द से जल्द निपटारा करे।
- यदि वज़ीर जानबूझकर सुनवाई में देरी करते हैं, तो हाईकोर्ट उनकी जमानत रद्द करने पर विचार कर सकता है।