सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य चुनाव आयुक्तों की 2023 के कानून के तहत हुई नियुक्तियों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 14 मई को अहम सुनवाई तय की है। यह फैसला अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा दायर याचिकाओं पर आया, जिन्होंने संविधान से जुड़े गंभीर मुद्दों को उठाते हुए शीघ्र सुनवाई की मांग की।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्जल भुइयां की पीठ ने पहले से तय एक विशेष पीठ मामले को स्थगित कर इस मुद्दे को प्राथमिकता दी। याचिकाओं में 2023 की संविधान पीठ के फैसले से हटकर नियुक्ति प्रक्रिया अपनाने पर सवाल उठाया गया है। उस फैसले में CEC और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की एक चयन समिति बनाने की बात कही गई थी। लेकिन 2023 में बने नए कानून में CJI को इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया, जो न्यायिक निगरानी की आवश्यकता पर सवाल खड़ा करता है।
सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि यदि नियुक्तियां केवल राजनीतिक हाथों में छोड़ दी जाएं, तो यह लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। उन्होंने हाल ही में बनाए गए CEC ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति को “लोकतंत्र की खिल्ली” बताते हुए उदाहरण के रूप में पेश किया। कुमार 2023 कानून के तहत नियुक्त होने वाले पहले CEC हैं और उनका कार्यकाल 26 जनवरी, 2029 तक रहेगा, जो अगले आम चुनावों की घोषणा से ठीक पहले तक का समय है।
नए कानून के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक — जो भी पहले हो — सीमित किया गया है। वर्ष 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने पूर्व IAS अधिकारियों ज्ञानेश कुमार और सुखबीर संधू को चुनाव आयुक्तों के रूप में नियुक्त करने की सिफारिश की थी।
याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि CJI को चयन समिति से बाहर करने से चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होती है, जिससे भारत की चुनावी प्रक्रिया की अखंडता खतरे में पड़ सकती है। मार्च 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने 2023 कानून के तहत हुई नियुक्तियों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था, लेकिन यह स्पष्ट किया था कि उसका पिछला निर्णय तब तक प्रभावी रहेगा जब तक उसे विधायी प्रक्रिया द्वारा विधिवत प्रतिस्थापित नहीं किया जाता।