भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उन गैर-पक्षकारों (Non-Parties) के अधिकारों को लेकर महत्वपूर्ण दिशानिर्देश तय किए हैं जो किसी न्यायिक डिक्री के खिलाफ अपील करने की अनुमति मांगते हैं। यह निर्णय H. Anjanappa & Ors. बनाम A. Prabhakar & Ors. (सिविल अपील संख्या 1180-1181 और 1182-1183/2025) मामले में आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसने मूल वाद में शामिल नहीं किए गए बाद के खरीदारों को अपील दायर करने की अनुमति दे दी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद बेंगलुरु नॉर्थ तालुक के बागलूर गांव में स्थित संपत्ति के लेन-देन से संबंधित था। संपत्ति की मूल स्वामिनी स्व. डेज़ी शांतप्पा ने 1995 में H. Anjanappa & Ors. के साथ ₹20 लाख में बिक्री समझौता किया था। हालाँकि, इस समझौते के प्रभावी रहते हुए, स्वामिनी ने भूमि का एक बड़ा भाग प्रतिवादी संख्या 3 को बेच दिया, जिसने आगे प्रतिवादी संख्या 1 और 2 को संपत्ति का कुछ हिस्सा बेच दिया। यह बिक्री उस समय की गई जब ट्रायल कोर्ट ने संपत्ति पर रोक (injunction) लगा दी थी।
वादी (plaintiffs) ने O.S. No. 458/2006 के तहत विशिष्ट प्रदर्शन (Specific Performance) का मुकदमा दायर किया, जिसे 2016 में ट्रायल कोर्ट ने उनके पक्ष में डिक्री कर दिया। बाद में, प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा दायर अपील भी खारिज कर दी गई, जिससे डिक्री बरकरार रही। इसके बावजूद, प्रतिवादी संख्या 1 और 2, जिन्होंने संपत्ति खरीदी थी, उन्होंने डिक्री को चुनौती देने के लिए अपील की।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने उनकी अपील में 586 दिनों की देरी को माफ कर दिया और यह कहते हुए उन्हें अपील की अनुमति दी कि वे संपत्ति के बाद के खरीदार होने के कारण प्रभावित पक्षकार हैं। इस आदेश के विरुद्ध मूल वादियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य कानूनी निष्कर्ष और टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने यह जांच की कि क्या उच्च न्यायालय को गैर-पक्षकारों को अपील की अनुमति देने और 586 दिनों की देरी माफ करने का अधिकार था।
1. गैर-पक्षकारों द्वारा अपील की अनुमति:
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि केवल वे व्यक्ति, जो किसी डिक्री से सीधे प्रभावित होते हैं या जिनके वैध अधिकार प्रभावित होते हैं, वे ही अपील करने की अनुमति मांग सकते हैं। गैर-पक्षकारों को स्वचालित रूप से अपील का अधिकार नहीं होता, जब तक कि वे ठोस कानूनी मानदंडों को पूरा न करें।
2. लिस पेंडेंस (Lis Pendens) सिद्धांत (धारा 52, संपत्ति स्थानांतरण अधिनियम, 1882):
अदालत ने जोर देकर कहा कि मुकदमे के लंबित रहने के दौरान किया गया संपत्ति का कोई भी स्थानांतरण मुकदमे के अंतिम परिणाम के अधीन होता है। इस मामले में, प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने एक लंबित विवाद और कोर्ट के निषेधाज्ञा आदेश के बावजूद संपत्ति खरीदी, जिससे उनका दावा कमजोर हो गया।
3. पक्षकार बनाए जाने की अस्वीकृत याचिका:
सुप्रीम कोर्ट ने गौर किया कि प्रतिवादी संख्या 1 और 2 पहले भी मुकदमे में पक्षकार बनने की याचिका दायर कर चुके थे, जिसे 2014 में ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था और इसे किसी ने चुनौती नहीं दी। इसलिए, वे बाद में अपील करने की अनुमति नहीं मांग सकते थे, क्योंकि यह मुद्दा पहले ही अंतिम रूप ले चुका था।
4. देरी को हल्के में माफ नहीं किया जा सकता:
कोर्ट ने 586 दिनों की अनुचित देरी पर सख्त आपत्ति जताई और कहा कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने बिना किसी ठोस स्पष्टीकरण के देरी माफ करके गंभीर त्रुटि की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“उच्च न्यायालय ने केवल अनुरोध के आधार पर देरी माफ कर दी, जो गंभीर गलती थी। इसे संपूर्ण मुकदमेबाजी को यहीं समाप्त कर देना चाहिए था।”
5. डिक्री की बाध्यकारी प्रकृति:
अदालत ने पुष्टि की कि किसी डिक्री का प्रभाव केवल मूल पक्षकारों तक सीमित नहीं होता, बल्कि बाद के खरीदार भी इसे चुनौती नहीं दे सकते। उन्हें डिक्री के अनुसार ही व्यवहार करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए मूल वादियों (H. Anjanappa & Ors.) की अपील स्वीकार कर ली।
- प्रतिवादी संख्या 1 और 2 को अपील का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं था, क्योंकि उनकी पक्षकार बनाए जाने की याचिका पहले ही खारिज की जा चुकी थी।
- 586 दिनों की देरी अनुचित और अस्वीकार्य थी।
- लिस पेंडेंस का सिद्धांत लागू होता है, इसलिए संपत्ति खरीदने वाले नए पक्षकार डिक्री से बंधे रहते हैं।
- यदि प्रतिवादी संख्या 1 और 2 को अपने विक्रेता (प्रतिवादी संख्या 3) से ठगे जाने की शिकायत है, तो वे अलग से कानूनी उपचार अपना सकते हैं, लेकिन इस मुकदमे को दोबारा नहीं खोल सकते।