सुप्रीम कोर्ट ने पूछा– क्या राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तालमेल संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरा है?

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अहम टिप्पणी करते हुए सवाल उठाया कि क्या भारत ने संविधान निर्माताओं की उस अपेक्षा को पूरा किया है, जिसमें राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच सौहार्द्र और परामर्श का संबंध सुनिश्चित करने की कल्पना की गई थी।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्या कांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं, यह टिप्पणी राष्ट्रपति द्वारा किए गए संवैधानिक संदर्भ (Presidential Reference) पर सुनवाई के दौरान की। यह संदर्भ राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका और समयसीमा से जुड़ा है।

केंद्र की दलीलें

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से दलील देते हुए संविधान सभा की बहसों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि राज्यपाल का पद “राजनीतिक शरण” का स्थान नहीं है, बल्कि इसके तहत संविधान द्वारा निश्चित शक्तियाँ और जिम्मेदारियाँ दी गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान सभा में राज्यपाल की नियुक्ति और भूमिका को लेकर विस्तृत विचार-विमर्श हुआ था ताकि संघीय ढांचे में संतुलन बना रहे।

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केंद्र ने अपनी लिखित दलीलों में यह भी कहा कि अदालत द्वारा राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करना संवैधानिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा करेगा और “संवैधानिक अव्यवस्था” की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।

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अदालत की चिंताएँ

पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि क्या संवैधानिक अदालतें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर सकती हैं। अदालत ने मंगलवार को भी इस पर चिंता जताई थी कि कुछ विधेयक 2020 से लंबित पड़े हैं। मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्पष्ट किया कि अदालत फिलहाल केवल संवैधानिक प्रश्नों पर विचार करेगी, न कि 8 अप्रैल को तमिलनाडु मामले में दिए गए उस फैसले पर जिसमें पहली बार अदालत ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए।

राष्ट्रपति का संदर्भ

यह मामला तब सामने आया जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। उन्होंने कुल 14 सवाल रखे, जिनका संबंध राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से है, विशेषकर अनुच्छेद 200 और 201 के तहत, जो राज्यपाल के विधेयकों पर निर्णय और राष्ट्रपति के पास आरक्षित विधेयकों की प्रक्रिया से जुड़े हैं।

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अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह इस मामले में अपनी सलाहकार अधिकारिता (advisory jurisdiction) का प्रयोग कर रही है, न कि अपीलीय अधिकारिता का, जैसा कि तमिलनाडु और केरल सरकारों ने प्रारंभिक आपत्ति में उठाया था।

पृष्ठभूमि

8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि राज्यपाल द्वारा आरक्षित किए गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। यह फैसला तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयकों के लंबे समय से लंबित रहने की पृष्ठभूमि में आया था।

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