एक महत्वपूर्ण फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 2005 के सामूहिक बलात्कार और अपहरण मामले में दोषी ठहराए गए चार व्यक्तियों की अपीलों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब पीड़िता नाबालिग हो, तो उसकी सहमति का कानूनन कोई महत्व नहीं रह जाता। कोर्ट ने दोषियों को आठ सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने और अपनी शेष सजा पूरी करने का आदेश दिया।
यह फैसला न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने क्रिमिनल अपील नंबर 1172 ऑफ 2014 और संबंधित मामलों में दिया, जिसका शीर्षक था “राजू @ निरपेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य”। यह मामला जुलाई 2005 से जुड़े एक भयावह घटनाक्रम से जुड़ा है, जिसमें 17 वर्षीय एक किशोरी को नौकरी का झांसा देकर अगवा किया गया और दो महीनों तक कई शहरों में उसके साथ बलात्कार किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि

प्रोसिक्ट्रिक्स (पीड़िता), उस समय 17 वर्ष की थी और अपने पिता की बहन प्रेमवती के साथ चौका सोनवर्षा गांव में रहती थी। उसे शेषमणि (अभियुक्त संख्या 1), इंद्रपाल (A2), राजू @ निरपेन्द्र सिंह (A3), सुरेश (A4), और सुरेन्द्र (A5) ने नौकरी का लालच देकर फंसाया। 6 जुलाई 2005 को उसे रीवा ले जाया गया, जहां A2, A3 और A5 ने सामूहिक बलात्कार किया। यह यौन शोषण सीधी, भोपाल और दिल्ली के पास एक अज्ञात स्थान सहित कई जगहों पर 10 सितंबर 2005 तक जारी रहा।
पीड़िता आखिरकार भाग निकली और इलाहाबाद पहुंची। 11 सितंबर 2005 को वह लौरी थाने पहुंची, जहां उसकी मौसी द्वारा पहले ही गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई जा चुकी थी। पुलिस ने तब भारतीय दंड संहिता की धाराओं 363 (अपहरण), 366 (अनैतिक उद्देश्य से अपहरण), और 376(2)(ग) (सामूहिक बलात्कार) के तहत एफआईआर दर्ज की।
ट्रायल और अपील
गहन जांच के बाद, सत्र न्यायालय ने पांचों अभियुक्तों को दोषी ठहराया। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने 2013 में इन सज़ाओं को बरकरार रखा, हालांकि कुछ मामूली संशोधन किए। हाईकोर्ट ने यह भी माना कि कुछ आरोपियों को धारा 363 और 366 दोनों के तहत अलग-अलग सज़ा देना IPC की धारा 71 का उल्लंघन है, इसलिए अतिरिक्त सज़ा को रद्द कर दिया।
A2 (इंद्रपाल), A3 (राजू), और A4 (सुरेश) ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की थी। A1 (शेषमणि) की केस की सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई, जिससे उनकी अपील समाप्त कर दी गई। A5 (सुरेंद्र) ने कोई अपील नहीं की।
सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष और टिप्पणियां
अपीलकर्ताओं की प्रमुख दलीलें थीं:
- पीड़िता की कथित सहमति;
- एफआईआर दर्ज कराने में देरी;
- पीड़िता की उम्र;
- शारीरिक चोटों की कमी।
सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया।
कोर्ट ने कहा: “एक बार जब यह स्थापित हो जाए कि घटना के समय पीड़िता नाबालिग थी, तो सहमति का प्रश्न अपने आप में अप्रासंगिक हो जाता है, और यह कृत्य कानूनन बलात्कार ही माना जाएगा।”
दंत चिकित्सा और स्कूल रिकॉर्ड, साथ ही प्राचार्य और अभिभावकों के बयान से यह पुष्टि हुई कि पीड़िता की उम्र उस समय 17 वर्ष से कम थी।
जब अभियोजन पक्ष ने यह कहा कि पीड़िता ने शहर-दर-शहर यात्रा के दौरान कभी शोर नहीं मचाया, तो कोर्ट ने टिप्पणी की: “यह मान लेना कि पीड़िता डर की भावना के अधीन नहीं थी, तर्कहीन होगा… डर के कारण यौन संबंध के लिए बाध्य होना, सहमति नहीं कहा जा सकता।”
कोर्ट ने यह भी कहा: “यह कहना कि पीड़िता यौन संबंध की आदी थी, एक पुरानी और संकीर्ण सोच है जो पीड़िता को नैतिक रूप से कलंकित करने और सहमति की अहमियत को कम करने की कोशिश करती है।”
एफआईआर में देरी को लेकर कोर्ट ने कहा: “बलात्कार के मामलों में देरी के सामान्य नियम लागू नहीं होते… पीड़िता दो महीने तक कैद में थी।”
आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों में कोई दम नहीं पाया और निचली अदालतों के फैसले को सही ठहराया। कोर्ट ने कहा: “हम पीड़िता द्वारा सहन की गई पीड़ा और शोषण को हल्के में नहीं ले सकते… न्याय तभी पूरा होगा जब अभियुक्त-अपीलकर्ता पूरी सज़ा भुगतें।”
कोर्ट ने आदेश दिया कि ज़मानत पर चल रहे दोषी आठ सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करें।