पुलिस की मदद से एफआईआर दर्ज कराकर सिविल विवाद में पैसा वसूल नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में शैलेश कुमार सिंह उर्फ शैलेश आर. सिंह के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी (एफआईआर) को रद्द कर दिया है और स्पष्ट कहा है कि सिविल विवादों में पैसे की वसूली के लिए आपराधिक कार्यवाही का सहारा नहीं लिया जा सकता।

न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने शैलेश सिंह की अपील स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के 7 मार्च 2025 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा था और अपीलकर्ता को ₹25 लाख शिकायतकर्ता को देने का निर्देश दिया था।

मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता शैलेश कुमार सिंह, जो कर्मा मीडिया एंड एंटरटेनमेंट एलएलपी के सह-संस्थापक और प्रोडक्शन हेड हैं, ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने की मांग की थी। यह एफआईआर भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 60(b), 316(2) और 318(2) के तहत दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता, जो पोलरॉयड मीडिया नाम से मीडिया वित्त और को-प्रोडक्शन का व्यवसाय चलाते हैं, ने आरोप लगाया था कि आपसी मौखिक समझौते के तहत हुए लेन-देन में धोखाधड़ी हुई।

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अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट में दलील दी कि यह मामला विशुद्ध रूप से व्यावसायिक विवाद है, जिसे गलत तरीके से आपराधिक रंग दिया गया। उन्होंने कहा कि केवल दबाव बनाने के उद्देश्य से एफआईआर कराई गई, जबकि इस मामले में कोई आपराधिक तत्व नहीं है।

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सुप्रीम कोर्ट में पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता सना रईस खान ने दलील दी कि एफआईआर सिविल विवाद को आपराधिक विवाद में बदलने का प्रयास मात्र है। दूसरी ओर, शिकायतकर्ता की ओर से अधिवक्ता आनंद मिश्रा ने कहा कि अपीलकर्ता को मौखिक समझौते के तहत धनराशि चुकानी चाहिए। राज्य की ओर से अधिवक्ता शौर्य कृष्ण ने हाईकोर्ट के आदेश का समर्थन किया।

सुप्रीम कोर्ट ने BNS की धारा 60(b) (दंडनीय अपराध की योजना छुपाना), धारा 316(2) (आपराधिक न्यासभंग) और धारा 318(2) (धोखाधड़ी) की समीक्षा की।

कोर्ट का विश्लेषण
पीठ ने सवाल उठाया कि प्राथमिकी में किस प्रकार कोई संज्ञेय अपराध बनता है और धोखाधड़ी का तत्व कैसे सिद्ध होता है। अदालत ने कहा कि भले ही मौखिक समझौते के तहत अपीलकर्ता पर कुछ राशि देना शेष हो, इससे यह साबित नहीं होता कि प्रारंभ से ही उनकी नीयत धोखाधड़ी की थी।

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अदालत ने Delhi Race Club (1940) Ltd. बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) 10 SCC 690 मामले का हवाला देते हुए कहा कि धोखाधड़ी साबित करने के लिए प्रारंभ से ही बेईमानी और कपटपूर्ण इरादा होना आवश्यक है।

कोर्ट ने कहा:

“हाईकोर्ट को शिकायतकर्ता की मदद करने या आरोपी से बकाया राशि वसूलने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अगर कोई राशि वसूलनी है तो इसके लिए सिविल कोर्ट या वाणिज्यिक अदालत के समक्ष वाद दायर किया जा सकता है, या मध्यस्थता अधिनियम, 1996 अथवा दिवाला और ऋण शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के तहत उपयुक्त कार्यवाही की जा सकती है।”

अदालत ने यह भी नोट किया कि शिकायतकर्ता ने अब तक धन वसूली के लिए कोई सिविल वाद या अन्य प्रक्रिया शुरू नहीं की है।

निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

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“हमें इस बात से विशेष आपत्ति है कि हाईकोर्ट ने पहले अपीलकर्ता को ₹25,00,000 देने का निर्देश दिया और फिर मध्यस्थता केंद्र में उपस्थित होने को कहा। अनुच्छेद 226 के तहत दाखिल रिट याचिका या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत दाखिल याचिका में एफआईआर रद्द करने के मामले में हाईकोर्ट से यह अपेक्षित नहीं है।”

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए एफआईआर रद्द कर दी और स्पष्ट किया कि शिकायतकर्ता उचित कानूनी उपायों के लिए सक्षम मंच के समक्ष जा सकते हैं।

मामले का विवरण

  • मामला: शैलेश कुमार सिंह उर्फ शैलेश आर. सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
  • मामला संख्या: आपराधिक अपील संख्या 2963/2025 (@ विशेष अनुमति याचिका (फौजदारी) संख्या 4880/2025)

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