भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि यदि उत्तराधिकार से संबंधित कोई स्थापित प्रथा मौजूद नहीं है, तो “न्याय, समता और सद्भाव” के सिद्धांत, संविधान के अनुच्छेद 14 में गारंटीकृत समानता के साथ मिलकर, यह तय करते हैं कि आदिवासी महिला के कानूनी उत्तराधिकारी उसकी पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा पाने के हकदार हैं। कोर्ट ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और दो निचली अदालतों के उन फैसलों को रद्द कर दिया, जिन्होंने गोंड जाति की एक आदिवासी महिला के वारिसों द्वारा दायर बंटवारे के मुकदमे को खारिज कर दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला धईया नाम की एक आदिवासी महिला के कानूनी वारिसों द्वारा दायर बंटवारे के मुकदमे से शुरू हुआ था। उन्होंने अपनी ननिहाल के दादा भज्जू उर्फ भंजन गोंड की पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मांगा था। धईया के पांच भाई थे और कुल छह संतानें थीं। अक्टूबर 1992 में जब प्रतिवादियों ने बंटवारे की मांग मानने से इनकार कर दिया, तब यह विवाद उठा।
द्वितीय श्रेणी सिविल जज, सूरजपुर (ट्रायल कोर्ट) ने 29 फरवरी 2008 को मुकदमा खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि वादकारियों ने अपनी गोंड जाति में कोई ऐसी परंपरा साबित नहीं की जिससे बेटी को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलता हो। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) के अनुसार यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता।

यह फैसला 21 अप्रैल 2009 को प्रथम अपीलीय अदालत और फिर 1 जुलाई 2022 को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट, बिलासपुर ने दूसरी अपील में बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने कहा कि वादकारियों ने अपने अधिकार को साबित करने के लिए कोई परंपरा नहीं पेश की और “न्याय, समता और सद्भाव” के आधार पर दलील यह कहते हुए खारिज कर दी कि सेंट्रल प्रॉविन्सेज लॉज एक्ट, 1875, जो इस सिद्धांत को मान्यता देता था, उसे रद्द किया जा चुका है। हाईकोर्ट के इस फैसले से असंतुष्ट होकर वादकारी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस मामले के कानूनी पहलुओं का विस्तार से विश्लेषण किया।
प्रथा और हिंदू कानून का उपयोग
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, अपनी धारा 2(2) के तहत अनुसूचित जनजातियों पर स्पष्ट रूप से लागू नहीं होता। पीठ ने निचली अदालतों की इस धारणा को गलत बताया कि बेटियों को विरासत में हिस्सा देने से रोका जाता है और इसे साबित करने का भार वादकारियों पर डाला गया। न्यायमूर्ति करोल ने कहा:
“प्रथाओं की चर्चा का प्रारंभिक बिंदु ही अपवर्जन (exclusion) के चरण पर था, यानी यह मान लिया गया कि ऐसी कोई अपवर्जक प्रथा है, जिससे बेटियों को संपत्ति का अधिकार नहीं मिलता, और वादकारियों से अपेक्षा की गई कि वे इसके विपरीत साबित करें।”
कोर्ट ने इस “पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह” की आलोचना की और कहा कि जब न वादकारी समावेश की प्रथा साबित कर पाए और न प्रतिवादी अपवर्जन की, तब न्यायालय को अन्य सिद्धांतों की ओर देखना चाहिए।
‘न्याय, समता और सद्भाव’ का महत्व
कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा सेंट्रल प्रॉविन्सेज लॉज एक्ट, 1875 के निरसन के आधार पर इस सिद्धांत को लागू न करने को “त्रुटिपूर्ण” ठहराया। कोर्ट ने निरसन अधिनियम की बचाव धारा (सेक्शन 4) की ओर इशारा किया, जो पहले से प्राप्त अधिकारों की सुरक्षा करती है। कोर्ट ने माना कि वादकारियों की मां का अधिकार उनके पिता की मृत्यु के समय ही “साकार” हो गया था, जो मुकदमा दायर होने से लगभग 30 साल पहले हुआ था, और इसलिए 1875 के अधिनियम के निरसन का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
कोर्ट ने संविधान पीठ के फैसले M. सिद्धीक बनाम सुरेश दास (राम जन्मभूमि मंदिर) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि जब विधिक ढांचा अपर्याप्त हो या कोई स्थापित प्रथा न हो, तब अदालतें इन सिद्धांतों का सहारा ले सकती हैं।
अनुच्छेद 14 के तहत संवैधानिक समानता
पीठ ने इस मुद्दे को मौलिक अधिकारों के स्तर पर उठाते हुए कहा कि महिला वारिस को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। कोर्ट ने कहा:
“ऐसा कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं दिखता, जिससे केवल पुरुषों को अपने पूर्वजों की संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार मिले और महिलाओं को नहीं, विशेषकर तब जब कोई कानूनी रोक नहीं दिखाई गई हो।”
कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के पीछे की विचारधारा का संदर्भ दिया, जिसने बेटियों को समान कॉपार्सनरी अधिकार दिए, ताकि लैंगिक भेदभाव समाप्त किया जा सके। साथ ही कोर्ट ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ जैसे ऐतिहासिक फैसलों का हवाला दिया और कहा कि समानता एक गतिशील अवधारणा है और मनमानी के विपरीत है। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:
“महिला वारिस को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना केवल लैंगिक विभाजन और भेदभाव को बढ़ाता है, जिसे कानून को समाप्त करना चाहिए।”
कोर्ट का निर्णय
अपने विस्तृत विश्लेषण के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार किया। कोर्ट का अंतिम निष्कर्ष था:
“हम इस दृढ़ मत पर हैं कि न्याय, समता और सद्भाव के सिद्धांतों के अनुरूप, संविधान के अनुच्छेद 14 के व्यापक प्रभाव के साथ पढ़ते हुए, अपीलकर्ता-वादकारी, जो धईया के कानूनी वारिस हैं, संपत्ति में अपने बराबरी के हिस्से के हकदार हैं।”
इसके साथ ही हाईकोर्ट, प्रथम अपीलीय अदालत और ट्रायल कोर्ट के फैसले रद्द कर दिए गए।