सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी आरोपी को बिना ट्रायल के वर्षों तक जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ है। इसी आधार पर शीर्ष अदालत ने बहु-करोड़ बैंक ऋण घोटाले के मामले में डीएचएफएल के पूर्व प्रमोटर कपिल वधावन और उनके भाई धीरज वधावन को जमानत दे दी है।
11 दिसंबर को दिए गए आदेश में न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई की पीठ ने कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र में यह सिद्धांत गहराई से स्थापित है कि “जमानत नियम है और जेल अपवाद।” अदालत ने साफ कहा कि विचाराधीन कैद को सजा का रूप नहीं लेने दिया जा सकता, खासकर तब जब मुकदमे का निपटारा दूर-दूर तक नजर न आ रहा हो।
पीठ ने मामले की प्रकृति और गवाहों की संख्या पर गौर करते हुए कहा कि यदि रोजाना सुनवाई भी हो, तब भी अगले दो से तीन साल में ट्रायल पूरा होना मुश्किल दिखता है। ऐसे में आरोपियों को लगातार जेल में रखना न तो न्यायसंगत है और न ही संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप।
हालांकि अदालत ने मामले के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन कड़ी शर्तों के साथ दोनों भाइयों को जमानत देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि रिहाई के एक सप्ताह के भीतर वे अपना पता और संपर्क विवरण संबंधित ट्रायल कोर्ट और उस पुलिस थाने को देंगे, जिसके क्षेत्र में वे रहेंगे। उन्हें हर महीने एक बार स्थानीय पुलिस थाने में हाजिरी लगानी होगी और आरोप तय होने के बाद ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित तारीखों पर पेश होना होगा।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वधावन भाई बिना हाई कोर्ट की अनुमति के देश से बाहर नहीं जा सकेंगे और रिहाई के दो दिनों के भीतर अपने पासपोर्ट ट्रायल कोर्ट में जमा कराना होगा। किसी भी गवाह को प्रभावित करने या धमकाने की कोशिश जमानत रद्द करने का आधार बनेगी। इसके अलावा, बिना ठोस कारण के अनावश्यक स्थगन मांगने पर भी राहत खतरे में पड़ सकती है।
गौरतलब है कि कपिल और धीरज वधावन को इस मामले में जुलाई 2022 में गिरफ्तार किया गया था। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने अक्टूबर 2022 में चार्जशीट दाखिल की, जिसके बाद निचली अदालत ने मामले का संज्ञान लिया।
यह मामला यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की शिकायत पर दर्ज एफआईआर से जुड़ा है। बैंक का आरोप है कि डीएचएफएल, उसके तत्कालीन चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर कपिल वधावन, पूर्व निदेशक धीरज वधावन और अन्य आरोपियों ने 17 बैंकों के कंसोर्टियम के साथ साजिश कर उन्हें बड़े पैमाने पर कर्ज मंजूर करने के लिए धोखा दिया। सीबीआई के अनुसार, इस साजिश के तहत करीब 42,871.42 करोड़ रुपये के ऋण स्वीकृत कराए गए, जिनमें से बड़ी राशि कथित तौर पर खातों में हेरफेर और जानबूझकर चूक के जरिए निकाल ली गई।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लंबे समय से विचाराधीन मामलों में जमानत और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर एक अहम टिप्पणी के तौर पर देखा जा रहा है।

