सुप्रीम कोर्ट ने 10 नवंबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक विवाहित महिला से पैदा हुए बच्चे के पितृत्व (Paternity) की जांच के लिए एक डॉक्टर को डीएनए टेस्ट कराने का निर्देश दिया गया था।
सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट किया कि जब तक भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के तहत बच्चे की वैधता (Legitimacy) के “निर्णायक सबूत” (Conclusive Proof) को आरोप लगाने वाले पक्ष द्वारा खंडित नहीं किया जाता, तब तक ऐसा निर्देश जारी नहीं किया जा सकता।
जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने क्रिमिनल अपील संख्या 1013 ऑफ 2021 की सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। पीठ ने माना कि हाईकोर्ट का आदेश “वैधानिक ढांचे और संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मौलिक गलतफहमी” पर आधारित था।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धोखाधड़ी और उत्पीड़न के आपराधिक मामले के संदर्भ में, बच्चे का पितृत्व एक “गौण कारक” (Collateral Factor) था और इसका कथित अपराधों से कोई “सीधा संबंध” (Direct Nexus) नहीं था।
क्या है मामले की पृष्ठभूमि?
यह अपील डॉक्टर आर. राजेंद्रन (अपीलकर्ता) द्वारा मद्रास हाईकोर्ट (मदुरै बेंच) के 10.05.2017 के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने सिंगल जज के उस आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें अपीलकर्ता को डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए रक्त का नमूना देने का निर्देश दिया गया था।
मामले की शुरुआत प्रतिवादी नंबर 1, कमर निशा की शिकायत से हुई। उनके अनुसार, 2001 में उनका विवाह अब्दुल लतीफ से हुआ था। उनके पति ने त्वचा रोग के इलाज के लिए अपीलकर्ता (डॉक्टर) से संपर्क किया। प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि इस दौरान डॉक्टर ने उनके साथ शारीरिक संबंध बनाए, जिसके परिणामस्वरूप 08.03.2007 को एक बच्चे का जन्म हुआ।
महिला ने आगे आरोप लगाया कि जब बच्चे की उम्र लगभग डेढ़ साल थी, तब उनके पति को इस संबंध का पता चला और उन्होंने उसे छोड़ दिया। बाद में, अपीलकर्ता के साथ हुए विवाद के बाद, महिला ने एक टेलीविजन कार्यक्रम में अपनी शिकायत सार्वजनिक कर दी, जिसके आधार पर 2014 में अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 417 (धोखाधड़ी) और 420 (धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति के लिए प्रेरित करना) और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4(1) के तहत एफआईआर दर्ज की गई।
जांच के दौरान पुलिस ने डीएनए टेस्ट की मांग की, लेकिन अपीलकर्ता ने इसका पालन नहीं किया। इसके बाद प्रतिवादी ने डीएनए टेस्ट की मांग करते हुए हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की, जिसे पहले सिंगल जज और बाद में डिवीजन बेंच ने मंजूरी दे दी थी।
न्यायालय के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ता (डॉक्टर) ने तर्क दिया कि डीएनए टेस्ट का आदेश केवल असाधारण मामलों में ही दिया जा सकता है, न कि “रोविंग इंक्वायरी” (Roving Inquiries) के लिए, और इसमें निजता के अधिकार (Right to Privacy) के गंभीर निहितार्थ हैं। उन्होंने दलील दी कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 वैध विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चे की वैधता के लिए एक निर्णायक धारणा (Conclusive Presumption) प्रदान करती है। उन्होंने यह भी बताया कि बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र और स्कूल प्रमाण पत्र जैसे सभी आधिकारिक दस्तावेजों में पिता का नाम अब्दुल लतीफ दर्ज है।
इसके विपरीत, प्रतिवादी (महिला) ने दलील दी कि यह मामला वैवाहिक विवाद का नहीं, बल्कि आपराधिक कार्यवाही का है, जिसमें सख्त सबूत की आवश्यकता होती है। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि वह (महिला) खुद टेस्ट की मांग कर रही है, इसलिए इसमें “चारित्रिक हनन” का कोई तत्व नहीं है। उन्होंने यह भी मांग की कि टेस्ट से इंकार करने पर अपीलकर्ता के खिलाफ साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत एक प्रतिकूल निष्कर्ष (Adverse Inference) निकाला जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा द्वारा लिखे गए इस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के वैधानिक ढांचे का व्यापक विश्लेषण किया।
1. धारा 112 (वैधता की धारणा) पर: कोर्ट ने कहा कि धारा 112 वैध विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चे की वैधता का “निर्णायक सबूत” स्थापित करती है। इस धारणा को, कोर्ट ने कहा, “केवल पति-पत्नी के बीच ‘पहुंच न होने’ (Non-Access) को साबित करके ही विस्थापित किया जा सकता है,” जिसका अर्थ यौन संबंधों की असंभवता से है।
पीठ ने पाया कि प्रतिवादी नंबर 1 इस धारणा को खंडित करने में पूरी तरह विफल रही हैं। कोर्ट ने कहा: “सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि प्रतिवादी नंबर 1 द्वारा बच्चे के गर्भाधान की प्रासंगिक अवधि के दौरान खुद और अब्दुल लतीफ के बीच ‘पहुंच न होने’ को स्थापित करने वाली कोई विशिष्ट दलील (Specific Pleading) रिकॉर्ड पर नहीं है।”
फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि बच्चे का जन्म 08.03.2007 को, विवाह के दौरान हुआ था। कोर्ट ने बताया कि पति द्वारा छोड़े जाने का महिला का अपना दावा भी “2008-2009 के आसपास” का है, जो “बच्चे के लगभग डेढ़ साल का हो जाने के काफी बाद” का समय है। कोर्ट ने उनके इस दावे को “बिना किसी सबूत के केवल एक कथन” (Bare Assertion) करार दिया।
कोर्ट ने माना कि प्रतिवादी का मामला, अधिक से अधिक, “एक साथ पहुंच” (Simultaneous Access) का था, जो “पति की पहुंच को नकारता नहीं है, और न ही यह धारा 112 के तहत वैधानिक धारणा को विस्थापित करने के लिए पर्याप्त है।”
2. पितृत्व का सवाल ‘गौण कारक’ के रूप में: कोर्ट ने फैसला सुनाया कि डीएनए टेस्ट का आदेश देने के लिए हाईकोर्ट द्वारा सीआरपीसी की धारा 53 और 53ए पर भरोसा करना “गलत” (Misplaced) था। पीठ ने माना कि इन प्रावधानों के इस्तेमाल के लिए “मांगी गई जांच और कथित अपराध के बीच एक स्पष्ट और निकट संबंध” (Proximate Nexus) होना आवश्यक है।
फैसले में कहा गया कि बच्चे का पितृत्व “धोखाधड़ी और उत्पीड़न के प्राथमिक आरोपों के लिए गौण” (Collateral) था। कोर्ट ने कहा: “आरोपों के मूल का बच्चे के पितृत्व से कोई संबंध नहीं है। बच्चा न तो इस कार्यवाही में कोई पक्ष है और न ही कथित अपराधों को निर्धारित करने के लिए बच्चे की स्थिति का पता लगाना आवश्यक है। ऐसी परिस्थितियों में डीएनए टेस्ट का निर्देश देना जांच के दायरे से पूरी तरह बाहर होगा…”
3. निजता और प्रतिकूल निष्कर्ष पर: कोर्ट ने पुष्टि की कि किसी व्यक्ति को जबरन डीएनए टेस्ट के अधीन करना अनुच्छेद 21 के तहत “निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर अतिक्रमण” है। कोर्ट ने माना कि प्रतिवादी की अपनी निजता को छोड़ने की इच्छा “दूसरों की निजता को छोड़ने तक विस्तारित नहीं होती है,” यानी अपीलकर्ता और बच्चे (जो अब बालिग हो गया है) की निजता।
इसके अलावा, कोर्ट ने प्रतिवादी के इस दावे को “कानूनी रूप से अस्थिर” (Legally Untenable) पाया कि बच्चा “अवैध” (Illegitimate) के रूप में रह रहा है। कोर्ट ने कहा, “कानून की नजर में, बच्चा अब्दुल लतीफ और प्रतिवादी नंबर 1 की वैध संतान है, क्योंकि धारा 112 के तहत वैधानिक धारणा अखंडित बनी हुई है।”
अपीलकर्ता के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने के तर्क को भी “मौलिक रूप से गलत” (Fundamentally Misconceived) माना गया।
अदालत का अंतिम निर्णय
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि हाईकोर्ट का निर्देश “अस्थिर” (Unsustainable) था, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 112 “निराधार आरोपों या मात्र संदेह के आधार पर बच्चों को अवैध ठहराने के खिलाफ एक मजबूत कवच (Bulwark) के रूप में खड़ी है।”
कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अपीलकर्ता पर लगे कथित अपराध “न तो प्रकृति में ऐसे हैं और न ही ऐसी परिस्थिति में हैं कि डीएनए विश्लेषण का सहारा लेने की आवश्यकता हो।”
अपील को स्वीकार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के 10.05.2017 के आक्षेपित निर्णय को रद्द कर दिया।




