एक महत्वपूर्ण फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले में ‘अवैध पत्नी’ और ‘वफादार रखैल’ शब्दों के इस्तेमाल की आलोचना की है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी शब्दावली न केवल अनुचित है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिलाओं के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करती है, जो सम्मान के साथ जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
मामले की पृष्ठभूमि
2019 के सिविल अपील नंबर 2536 मामले को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच को भेजा गया था, क्योंकि इस बात पर परस्पर विरोधी विचार थे कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25 के तहत एक अमान्य विवाह से पति या पत्नी स्थायी गुजारा भत्ता पाने के हकदार हैं। मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के तहत एक सक्षम न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित किया गया विवाह पति या पत्नी को धारा 25 के तहत भरण-पोषण पाने का हकदार बनाता है।
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न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 12 फरवरी, 2025 को अमान्य विवाह और ऐसे मामलों में पति या पत्नी के अधिकारों से जुड़े विवाद को संबोधित करते हुए अपना फैसला सुनाया।
मुख्य कानूनी मुद्दे और न्यायालय का निर्णय
न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दे थे:
क्या एक अमान्य विवाह से पति या पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के तहत स्थायी गुजारा भत्ता पाने के हकदार हैं?
क्या पति-पत्नी विवाह को शून्य घोषित करने की कार्यवाही के दौरान धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों स्थितियों में भरण-पोषण देने के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि धारा 25 के तहत ‘किसी भी डिक्री’ में शून्यता की डिक्री शामिल है। फैसले ने चंद धवन बनाम जवाहरलाल धवन (1993) 3 एससीसी 406 और रमेशचंद्र रामप्रतापजी डागा बनाम रामेश्वरी रमेशचंद्र डागा (2005) 2 एससीसी 33 के पहले के उदाहरणों को बरकरार रखा, जिसमें शून्य विवाह से पति-पत्नी के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकार को मान्यता दी गई थी।
कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि धारा 25 के तहत शक्ति विवेकाधीन है और प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के आधार पर इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। फैसले में कहा गया, “स्थायी गुजारा भत्ता देना इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि द्विविवाह नैतिक है या अनैतिक, बल्कि पति-पत्नी की वित्तीय और सामाजिक निर्भरता पर निर्भर करता है।” उच्च न्यायालय की भाषा की आलोचना
निर्णय का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पिछले निर्णय में इस्तेमाल की गई शब्दावली को लेकर कड़ी असहमति जताई। उच्च न्यायालय ने अमान्य विवाह से उत्पन्न महिला को ‘अवैध पत्नी’ और ‘वफादार रखैल’ कहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने इन शब्दों को स्त्री-द्वेषी और असंवैधानिक पाया, और कहा:
“अवैध विवाह में शामिल महिला को ‘अवैध पत्नी’ या ‘वफादार रखैल’ जैसे शब्दों से वर्णित करना उसके मौलिक अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। ऐसी भाषा बेहद अपमानजनक है और महिलाओं की गरिमा को कम करती है। किसी भी न्यायिक प्राधिकारी को ऐसी शब्दावली का उपयोग नहीं करना चाहिए जो व्यक्तियों को समानता और गरिमा के उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित करती हो।”
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने का मौलिक अधिकार है, और ऐसी अपमानजनक भाषा का उपयोग लैंगिक पूर्वाग्रह को दर्शाता है, जिसका न्यायिक चर्चा में कोई स्थान नहीं है।
प्रस्तुत तर्क
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि शून्य विवाह में गुजारा भत्ता के अधिकार को मान्यता देने से बेतुके परिणाम हो सकते हैं, उन्होंने ऐसे उदाहरणों का हवाला दिया जहां एक महिला अपनी वैवाहिक स्थिति को गलत तरीके से प्रस्तुत करती है या हिंदू कानून के तहत निषिद्ध संबंधों में संलग्न होती है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि धारा 25 का उद्देश्य आर्थिक रूप से आश्रित जीवनसाथी की रक्षा करना है, चाहे विवाह वैध हो या शून्य। वकील ने आगे तर्क दिया कि संविधान का अनुच्छेद 15(3), जो महिलाओं के पक्ष में विशेष प्रावधानों की अनुमति देता है, ऐसे मामलों में भरण-पोषण प्रदान करने को उचित ठहराता है।