सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता फोरम की संरचना में स्थायी बदलाव की जरूरत बताई, उपभोक्तावाद को बताया संवैधानिक अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में उपभोक्तावाद को भारतीय लोकतंत्र और संवैधानिक शासन का मूलभूत तत्व बताया है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत राज्य व जिला उपभोक्ता आयोगों में नियुक्तियों से संबंधित नियमों की वैधता की समीक्षा करते हुए कोर्ट ने केवल कानूनी त्रुटियों की ओर संकेत नहीं किया, बल्कि उपभोक्ता फोरम की अस्थायी प्रकृति को संविधान के विरुद्ध बताते हुए संस्थागत ढांचे में व्यापक सुधार की आवश्यकता जताई।

जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस एम.एम. सुंदरेश की पीठ ने कहा कि उपभोक्ता न्याय केवल एक प्रशासनिक विषय नहीं है, बल्कि यह संविधान में निहित सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय न्याय से गहराई से जुड़ा हुआ है। कोर्ट ने उपभोक्ता फोरम में स्थायी नियुक्तियों और संरचना की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया।

पृष्ठभूमि

यह मामला महाराष्ट्र और तेलंगाना राज्यों से संबंधित कई अपीलों से उत्पन्न हुआ, जिनमें उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत आयोगों में अध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और चयन प्रक्रिया को चुनौती दी गई थी। याचिकाएं पूर्व में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश बनाम उपभोक्ता संरक्षण बार एसोसिएशन, रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड और मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ जैसे मामलों में दिए गए निर्णयों पर आधारित थीं, जिनमें न्यायिक वर्चस्व, न्यूनतम 5 वर्ष का कार्यकाल और पारदर्शी चयन प्रक्रिया की आवश्यकता पर बल दिया गया था।

मुख्य कानूनी प्रश्न

  • नियम 6(1) और 10(2) की संवैधानिक वैधता
  • महाराष्ट्र की चयन प्रक्रिया की वैधता
  • कार्यकाल आधारित नियुक्तियों की संवैधानिकता
  • पुनर्नियुक्ति की प्रक्रिया और नियमों की अनुपलब्धता
  • न्यायिक एवं गैर-न्यायिक सदस्यों की परीक्षा प्रक्रिया में भेदभाव

कोर्ट के अवलोकन

न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश द्वारा लिखित निर्णय में उपभोक्तावाद की ऐतिहासिक, संवैधानिक और वैश्विक प्रासंगिकता पर विस्तृत टिप्पणी की गई। उन्होंने कहा:

“उपभोक्तावाद संविधान की आत्मा का अभिन्न अंग है… उपभोक्ता के अधिकार केवल संवैधानिक या वैधानिक नहीं हैं, बल्कि वे प्राकृतिक और इसलिए अविच्छिन्न हैं।”

कोर्ट ने महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के उद्धरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि एक सशक्त उपभोक्ता लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।

संरचनात्मक सुझावों में कोर्ट ने कहा:

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“हमें लगता है कि उपभोक्ता आयोगों में कार्यकाल आधारित व्यवस्था की मानसिकता में परिवर्तन का समय आ गया है… हम केंद्र सरकार से अपेक्षा करते हैं कि वह इस मुद्दे की गंभीरता को समझे और आवश्यक कदम उठाए।”

निर्णय

  1. नियम रद्द किए गए:
    • नियम 6(1) (चयन समिति की संरचना) और 10(2) (चार वर्ष का कार्यकाल) को असंवैधानिक ठहराते हुए खारिज किया गया।
    • कोर्ट ने कहा कि न्यायिक वर्चस्व चयन प्रक्रिया में अनिवार्य है और कार्यकाल न्यूनतम पाँच वर्ष होना चाहिए।
  2. चयन प्रक्रिया अमान्य घोषित:
    • महाराष्ट्र द्वारा आयोजित लिखित परीक्षा का ‘पेपर-II’ Limaye – I निर्देशों के विपरीत होने के कारण रद्द किया गया। कोर्ट ने कहा कि पूर्व दिशा-निर्देशों में किसी भी प्रकार का बदलाव अस्वीकार्य है।
  3. न्यायिक सदस्यों के लिए छूट:
    • नियम 3(2)(a) के अंतर्गत न्यायिक सदस्यों को लिखित परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं है।
  4. तेलंगाना में की गई नियुक्तियां रद्द:
    • तेलंगाना में नियुक्तियां Limaye – I से पूर्व की गई थीं, फिर भी वे निर्णयों के अनुरूप नहीं थीं, अतः उन्हें रद्द किया गया।
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निर्देश

  • केंद्र सरकार को उपभोक्ता फोरम की संपूर्ण संरचना की पुनर्समीक्षा कर स्थायी नियुक्तियों की दिशा में पहल करने को कहा गया है।
  • कोर्ट ने कहा कि यह केवल नीति का प्रश्न नहीं, बल्कि संवैधानिक आवश्यकता है।
  • पूर्व में दिए गए अंतरिम आदेशों को अपीलों के लंबित रहने तक प्रभावी बनाए रखने के निर्देश दिए गए।


मामला: गणेशकुमार राजेश्वरराव सेलुकर व अन्य बनाम महेन्द्र भास्कर लिमये व अन्य
विवरण: सिविल अपील संख्या 9982/2024 व सम्बद्ध वाद

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