सुप्रीम कोर्ट: दीवानी और आपराधिक कार्यवाही साथ-साथ चल सकती हैं; विवादित ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ के आधार पर FIR रद्द करने से इनकार

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि दीवानी (Civil) उपचार की उपलब्धता किसी आपराधिक अभियोजन (Criminal Prosecution) को रोकने का आधार नहीं हो सकती, यदि आरोपों में अपराध के आवश्यक तत्व मौजूद हों। कोर्ट ने कहा कि दीवानी और आपराधिक कार्यवाही साथ-साथ चल सकती हैं।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने तेलंगाना हाईकोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें अपीलकर्ता ‘रॉकी’ के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 344 (गलत तरीके से कैद करना) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत संज्ञान को बरकरार रखा गया था।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या हाईकोर्ट धारा 482 सीआरपीसी (CrPC) के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए कार्यवाही को रद्द करने से इनकार करने में सही था।

अपीलकर्ता ने तर्क दिया था कि पूरा मामला दीवानी प्रकृति का है और उसने एक ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ (बकाया नहीं होने का प्रमाण पत्र) का हवाला दिया। हालांकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि उक्त प्रमाण पत्र की सत्यता जांच का विषय (matter of trial) है और इसे इस स्तर पर सत्य मानकर कार्यवाही रद्द नहीं की जा सकती। कोर्ट ने अपील को “गुण-दोष रहित” (devoid of any merit) मानते हुए खारिज कर दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद अपीलकर्ता (आरोपी नंबर 2) और प्रतिवादी नंबर 2 (शिकायतकर्ता) के बीच 2008 से 2010 के दौरान किए गए निर्माण कार्यों और वित्तीय लेन-देन से जुड़ा है।

अपीलकर्ता का दावा था कि प्रतिवादी नंबर 2 ने 10 जून 2010 को एक ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ जारी किया था, जिसमें स्वीकार किया गया था कि कोई भुगतान बकाया नहीं है। हालांकि, बाद में विवाद उत्पन्न हुए और प्रतिवादी नंबर 2 ने 2015 में अपीलकर्ता के खिलाफ एफआईआर (FIR No. 240/2015) दर्ज कराई।

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जांच के बाद 2016 में आरोप पत्र (Charge Sheet) दाखिल किया गया। हैदराबाद के तृतीय अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने 19 अक्टूबर 2016 को आईपीसी की धारा 420, 406, 344 और 506 के तहत अपराधों का संज्ञान लिया।

अपीलकर्ता ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। तेलंगाना हाईकोर्ट ने आंशिक राहत देते हुए धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत संज्ञान को रद्द कर दिया, लेकिन धोखाधड़ी और धमकी जैसी अन्य धाराओं के तहत कार्यवाही जारी रखने का आदेश दिया।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता का तर्क: अपीलकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि विवाद पूरी तरह से दीवानी प्रकृति का है जिसे “गलत तरीके से आपराधिक रंग दिया गया है।” उन्होंने 10 जून 2010 के ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ का हवाला देते हुए कहा कि आरोपों में कोई सच्चाई नहीं है।

यह भी दलील दी गई कि एफआईआर केवल दबाव बनाने और पैसे वसूलने के लिए दर्ज कराई गई है। इसे दीवानी मुकदमे (O.S. No. 98 of 2015) में मिले निषेधाज्ञा आदेश (Injunction Order) के जवाब में एक “प्रेरित जवाबी कार्रवाई” बताया गया, क्योंकि एफआईआर आदेश के तीन दिन बाद ही दर्ज की गई थी। साथ ही, घटना के पांच साल बाद एफआईआर दर्ज कराने में हुई देरी को भी आधार बनाया गया।

अपीलकर्ता ने मेसर्स शिखर केमिकल्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) और मितेश कुमार जे. शा बनाम कर्नाटक राज्य (2022) के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि दीवानी विवादों को निपटाने के लिए आपराधिक कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

प्रतिवादियों का तर्क: राज्य और शिकायतकर्ता की ओर से पेश वकीलों ने याचिका का विरोध किया। यह बताया गया कि अपीलकर्ता की कंपनी ने केवल लगभग 52 लाख रुपये का भुगतान किया था, जबकि निर्माण कार्य के लिए लगभग 1.17 करोड़ रुपये के तीन बिल जमा किए गए थे।

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प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि जिस ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ का हवाला दिया जा रहा है, वह “फर्जी” (fabricated) है और वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाता है। यह भी कहा गया कि जांच के दौरान चार गवाहों के बयान दर्ज किए गए हैं जो आरोपों की पुष्टि करते हैं, इसलिए इसे प्रारंभिक चरण में खारिज नहीं किया जा सकता।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता की इस मुख्य दलील को खारिज कर दिया कि विवाद की दीवानी प्रकृति आपराधिक कार्यवाही को रोकती है। फैसला लिखते हुए जस्टिस विपुल एम. पंचोली ने कहा:

“हालांकि अदालतों को दीवानी विवादों को आपराधिक रंग देने के प्रयासों के प्रति सतर्क रहना चाहिए, लेकिन यह भी उतना ही स्थापित कानून है कि दीवानी उपचारों (civil remedies) का अस्तित्व आपराधिक अभियोजन को नहीं रोकता है, यदि आरोपों में अपराध के आवश्यक तत्व मौजूद हों। यदि तथ्यात्मक मैट्रिक्स दोनों का समर्थन करता है तो दीवानी और आपराधिक कार्यवाही वैध रूप से साथ-साथ चल सकती हैं।”

‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ पर टिप्पणी: कोर्ट ने विवादित प्रमाण पत्र पर भरोसा करने से इनकार करते हुए स्पष्ट किया कि इसकी वैधता ट्रायल के दौरान ही तय की जा सकती है। कोर्ट ने कहा:

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“प्रतिवादी नंबर 2 का आरोप है कि प्रमाण पत्र फर्जी है। इसकी प्रामाणिकता, साक्ष्य मूल्य और कानूनी प्रभाव ऐसे मामले हैं जिनका निर्णय केवल ट्रायल (विचारण) में ही हो सकता है। क्वाशिंग (रद्द करने की प्रक्रिया) विवादित दस्तावेजों पर आधारित नहीं हो सकती जिनकी वैधता स्वयं एक मुद्दा है।”

क्वाशिंग के लिए परीक्षण: कोर्ट ने प्रदीप कुमार केसरवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) में निर्धारित चार-चरणीय परीक्षण का हवाला दिया। इसके तहत, आरोपी द्वारा प्रस्तुत सामग्री “उत्कृष्ट और त्रुटिहीन गुणवत्ता” (sterling and impeccable quality) की होनी चाहिए जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा चुनौती न दी जा सके। पीठ ने पाया कि मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के दस्तावेज इन मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं।

कोर्ट ने हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992) के दिशानिर्देशों का भी उल्लेख किया और निष्कर्ष निकाला कि यह मामला उन “दुर्लभ से दुर्लभतम” (rarest of rare) मामलों की श्रेणी में नहीं आता है जहां कार्यवाही रद्द की जानी चाहिए।

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता हाईकोर्ट के आदेश में किसी भी प्रकार की “घोर अवैधता या मनमानापन” साबित करने में विफल रहा है। तदनुसार, कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और आईपीसी की धारा 420, 344 और 506 के तहत कार्यवाही जारी रखने का आदेश दिया।

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