भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि कोई भी वादी यदि न्यायालय में आए, तो उसे ‘स्वच्छ हाथों’ के साथ आना चाहिए। न्यायालय ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत दायर एक आपराधिक शिकायत को रद्द करते हुए कहा कि अगर वादी शिकायत दर्ज करते समय महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाता है, तो यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा। यह फैसला रेखा शरद उशीर बनाम सप्तश्रृंगी महिला नगरी सहकारी पतसंस्था लिमिटेड मामले में आया, जिसमें शिकायतकर्ता ने आरोपी द्वारा भेजे गए आवश्यक पत्राचार को शिकायत में उजागर नहीं किया।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भूइयां की दो सदस्यीय पीठ द्वारा दिए गए इस निर्णय में विशेष रूप से आपराधिक कार्यवाहियों में निष्पक्षता और पूर्ण पारदर्शिता की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है, खासकर चेक बाउंस जैसे अर्ध-आपराधिक मामलों में।
मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद महाराष्ट्र के नासिक जिले के कलवन में स्थित एक क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसाइटी, सप्तश्रृंगी महिला नगरी सहकारी पतसंस्था लिमिटेड, और उसकी सदस्य रेखा शरद उशीर के बीच लंबे समय से चले आ रहे वित्तीय लेन-देन से जुड़ा है।
जुलाई 2006 में रेखा उशीर ने 3,50,000 रुपये का एक ओवरड्राफ्ट लोन लिया था और इसके साथ दो सुरक्षा चेक जारी किए थे। फरवरी 2007 में पहला चेक बाउंस हो गया, जिसके आधार पर केस संख्या 135/2007 दर्ज किया गया। हालांकि, रेखा ने यह राशि 3,88,077 रुपये सितंबर 2016 तक चुका दी और शिकायतकर्ता ने मुकदमा वापस ले लिया।
शिकायतकर्ता का दावा था कि जुलाई 2008 में रेखा ने एक और लोन 11,97,000 रुपये लिया। जब भुगतान में चूक हुई, तो उसने दूसरा सुरक्षा चेक (नंबर 010722, दिनांक 3 अक्टूबर 2016, राशि ₹27,27,460) बैंक में प्रस्तुत किया, जो बाउंस हो गया। इसके बाद 11 नवंबर 2016 को विधिक नोटिस भेजा गया और 15 दिसंबर 2016 को क्रिमिनल केस संख्या 648/2016 दायर किया गया।
न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, कलवन ने 2 मार्च 2017 को अभियोजन की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश जारी किया। इस आदेश को रेखा ने क्रिमिनल रिट याचिका संख्या 2316/2017 के माध्यम से बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसे 18 दिसंबर 2023 को खारिज कर दिया गया।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता अनिता मल्होत्रा ने तर्क दिया कि पहले लोन का पूरा भुगतान पहले ही कर दिया गया था और अब उसी पर आधारित सुरक्षा चेक को गलत तरीके से नए कथित कर्ज की उगाही के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी मुवक्किल ने कई बार पत्र लिखकर लोन संबंधी दस्तावेज मांगे थे ताकि वे विधिक नोटिस का उत्तर दे सकें, लेकिन शिकायतकर्ता ने कोई दस्तावेज नहीं दिए। इसके बावजूद शिकायत दर्ज की गई, जिसमें इन पत्राचारों का कोई जिक्र नहीं किया गया।
वहीं, प्रतिवादी पक्ष के अधिवक्ता ने कहा कि धारा 139 के तहत चेक के संबंध में एक वैधानिक धारणा है कि वह ऋण चुकाने के लिए दिया गया था और धारा 138 के तहत अपराध के सभी आवश्यक तत्व उपस्थित हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मांगे गए दस्तावेज रेखा को दिए गए थे, जिन पर उनके हस्ताक्षर भी मौजूद हैं।
हालांकि, न्यायालय ने पाया कि ऐसे दस्तावेजों की आपूर्ति की कोई पुष्टि शिकायत या धारा 200 सीआरपीसी के तहत दिए गए हलफनामे में नहीं की गई थी। यह दावा पहली बार जनवरी 2025 में एक अतिरिक्त हलफनामे के माध्यम से किया गया, जिससे शिकायतकर्ता की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह उत्पन्न हुआ।
विधिक प्रश्न जो विचाराधीन रहे
- क्या शिकायतकर्ता द्वारा 28 नवंबर और 13 दिसंबर 2016 के पत्रों को छिपाना महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाने की श्रेणी में आता है?
- क्या यह शिकायत वैध थी, जबकि अपीलकर्ता ने विधिक नोटिस का उत्तर दस्तावेजों की मांग करते हुए दिया था, और वे दस्तावेज नहीं दिए गए?
- क्या ऐसे पत्राचारों को उजागर किए बिना आपराधिक कानून की प्रक्रिया को प्रारंभ करना प्रक्रिया का दुरुपयोग है?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ
न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि शिकायतकर्ता ने जानबूझकर उन पत्रों को छिपाया जिनमें दस्तावेजों की मांग की गई थी। ये दस्तावेज आवश्यक थे ताकि अपीलकर्ता विधिक नोटिस का समुचित उत्तर दे सके। न्यायालय ने कहा:
“वास्तविक तथ्यों और दस्तावेजों को छिपाकर आपराधिक कानून की प्रक्रिया शुरू करना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।”
इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा:
“जिस व्यक्ति का मुकदमा असत्य पर आधारित है, उसे अदालत में आने का कोई अधिकार नहीं है। उसे मुकदमे के किसी भी चरण में बाहर कर दिया जाना चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट ने एस.पी. चेंगलवराया नायडू बनाम जगन्नाथ (1994) 1 SCC 1 मामले का हवाला देते हुए याद दिलाया कि न्यायिक प्रक्रिया का उपयोग सत्य को छिपाकर किसी पक्ष को परेशान करने के लिए नहीं किया जा सकता।
पीठ ने यह भी कहा कि यदि ये दोनों पत्र मजिस्ट्रेट को शिकायत दायर करते समय दिखाए गए होते, तो वह धारा 203 सीआरपीसी के तहत शिकायत खारिज कर सकते थे।
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए निम्न आदेश पारित किए:
- बॉम्बे हाईकोर्ट का आदेश दिनांक 18 दिसंबर 2023 रद्द किया गया।
- न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, कलवन के समक्ष क्रिमिनल केस संख्या 648/2016 खारिज किया गया।
- मजिस्ट्रेट द्वारा दिनांक 2 मार्च 2017 को पारित आदेश रद्द किया गया।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यह निर्णय प्रतिवादी को वैधानिक रूप से उपलब्ध अन्य दीवानी उपायों को अपनाने से नहीं रोकता।