CrPC धारा 437 और 438 | जमानत पर फैसला तथ्यों के आधार पर हो, अमूर्त सिद्धांतों पर नहीं; अग्रिम और नियमित जमानत में कोई सख्त भेद नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक धोखाधड़ी मामले में दी गई जमानत को रद्द करते हुए जमानत देने से जुड़े महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि जमानत पर कोई भी निर्णय कानूनी मिसालों के यांत्रिक अनुप्रयोग के बजाय मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित होना चाहिए। जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि नियमित और अग्रिम जमानत पर विचार करने के आधारों में कोई कठोर अंतर नहीं है और अदालतों को याद दिलाया कि जब कोई आरोपी जमानत की सुनवाई के लिए पेश होता है तो उसे “डीम्ड कस्टडी” (मानित अभिरक्षा) में माना जाता है।

फैसले का तथ्यात्मक संदर्भ

यह महत्वपूर्ण टिप्पणियां मेसर्स नेटसिटी सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार व अन्य के मामले में आईं, जिसमें कोर्ट ने धोखाधड़ी के आरोपी एक दंपति को दी गई जमानत रद्द कर दी। निचली अदालतों ने मुख्य रूप से इस आधार पर जमानत दी थी कि मामले में चार्जशीट दाखिल हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण को त्रुटिपूर्ण पाया और कहा कि इसमें आरोपी के प्रतिकूल आचरण के “स्पष्ट तथ्यात्मक मैट्रिक्स” को नजरअंदाज किया गया, जिसमें हाईकोर्ट को दिए गए समझौते के एक वचन से मुकरना भी शामिल था।

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जमानत कानून पर सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का उपयोग जमानत न्यायशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों पर विस्तार से प्रकाश डालने के लिए किया।

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तथ्यों की प्रधानता: कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि कानून लागू करने से पहले तथ्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा, “जमानत के मामलों में किसी भी कानूनी सिद्धांत को लागू करने से पहले, मुख्य रूप से तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर निर्णय लिया जाना चाहिए।” इस बात को पुष्ट करते हुए, फैसले में कहा गया है कि “कोई भी मिसाल शून्य में काम नहीं करती है और उसे मौजूदा तथ्यों के साथ सह-संबंधित होना चाहिए।” पीठ ने पाया कि निचली अदालतों ने आरोपी के आचरण को नजरअंदाज करने और इस अमूर्त सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करने में गलती की थी कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद हिरासत की आवश्यकता नहीं होती है।

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अग्रिम जमानत बनाम नियमित जमानत: कोर्ट ने अग्रिम जमानत (CrPC धारा 438) और नियमित जमानत (CrPC धारा 437) के बीच के अंतर को भी संबोधित किया। अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (ACMM) ने इस आधार पर कार्यवाही की थी कि दोनों पर विचार करने के आधार अलग-अलग हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस टिप्पणी को “प्रथम दृष्टया पूरी तरह से सही नहीं” करार दिया। अपनी तीन-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले सतेंदर कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो का हवाला देते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट किया, “हमने जमानत के संबंध में जो कुछ भी प्रतिपादित किया है, वह अग्रिम जमानत के मामलों पर भी समान रूप से लागू होगा। आखिरकार, अग्रिम जमानत भी जमानत का ही एक प्रकार है।”

‘डीम्ड कस्टडी’ का सिद्धांत: फैसले में एक महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक पहलू पर भी प्रकाश डाला गया। आरोपी 18 अक्टूबर, 2023 को अपनी जमानत याचिकाओं के साथ ACMM के सामने पेश हुए थे, लेकिन जमानत देने का अंतिम आदेश 10 नवंबर, 2023 को ही पारित किया गया था। इस बीच की अवधि में, अंतरिम रिहाई का कोई औपचारिक आदेश पारित नहीं होने के बावजूद उन्हें हिरासत में नहीं लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुचित पाया और फैसला सुनाया:

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“एक बार जब जमानत याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हो गई और आरोपी अदालत के समक्ष उपस्थित हो गए, तो उन्हें संबंधित अदालत की हिरासत में माना जाएगा, जब तक कि उनकी रिहाई के लिए कोई विशिष्ट आदेश पारित नहीं किया जाता – चाहे वह नियमित आधार पर हो या अंतरिम रूप में।”

इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर, कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि जमानत देना अनुचित था, निचली अदालतों के आदेशों को रद्द कर दिया और आरोपी को आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।

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