आर्बिट्रेशन कार्यवाही समाप्त होने पर धारा 11 के तहत नई याचिका स्वीकार्य नहीं; ‘रिकॉल एप्लिकेशन’ या धारा 14(2) ही सही रास्ता: सुप्रीम कोर्ट

मध्यस्थता कार्यवाही (Arbitration Proceedings) की समाप्ति और उसके खिलाफ उपलब्ध कानूनी उपायों को लेकर स्थिति स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि फीस का भुगतान न करने के कारण मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (“अधिनियम, 1996”) की धारा 38 के तहत कार्यवाही को समाप्त करने वाला आदेश, अनिवार्य रूप से धारा 32(2)(c) के तहत दिया गया आदेश माना जाएगा।

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने फैसला सुनाया कि ऐसी समाप्ति से असंतुष्ट पक्ष के लिए उचित उपाय यह है कि वह पहले आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल के समक्ष ‘रिकॉल एप्लिकेशन’ (वापसी की अर्जी) दायर करे। यदि ट्रिब्यूनल इसे खारिज कर देता है, तो पक्षकार अधिनियम की धारा 14(2) के तहत कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं। पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि मध्यस्थता का दूसरा दौर शुरू करने के लिए धारा 11 के तहत नई याचिका दायर करना कानूनन मान्य नहीं है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील ‘मेसर्स अमृतसर हेल्थ एंड हॉस्पिटैलिटी सर्विसेज’ से जुड़े एक साझेदारी विवाद से उत्पन्न हुई थी। पूंजी योगदान और प्रबंधन को लेकर हुए विवादों के बाद, अपीलकर्ताओं ने मध्यस्थता क्लॉज का सहारा लिया। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने मार्च 2020 में एक एकमात्र मध्यस्थ (Sole Arbitrator) नियुक्त किया और निर्देश दिया कि फीस अधिनियम की ‘चौथी अनुसूची’ (Fourth Schedule) के अनुसार तय की जाए।

शुरुआत में मध्यस्थ ने ‘स्टेटमेंट ऑफ क्लेम’ के आधार पर फीस तय की। हालांकि, जब प्रतिवादी ने 82 करोड़ रुपये से अधिक का काउंटर-क्लेम दायर किया, तो मध्यस्थ ने फीस को संशोधित कर 37,50,000/- रुपये कर दिया। अपीलकर्ताओं ने क्लेम और काउंटर-क्लेम दोनों के लिए बढ़ी हुई फीस देने में असमर्थता जताई। चूंकि कोई भी पक्ष आवश्यक फीस का भुगतान करने को तैयार नहीं था, इसलिए एकमात्र मध्यस्थ ने 28 मार्च, 2022 को अधिनियम की धारा 38 का हवाला देते हुए कार्यवाही समाप्त कर दी।

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अपीलकर्ताओं ने इस समाप्ति को एक रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद, उन्होंने नए मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए धारा 11(6) के तहत एक नई याचिका दायर की, जिसे हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह विचारणीय नहीं है। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

कानूनी मुद्दे

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से तीन सवालों पर विचार किया:

  1. अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत “मध्यस्थता कार्यवाही की समाप्ति” का क्या अर्थ है?
  2. क्या धारा 38 (लागत का भुगतान न करने पर) के तहत समाप्ति, धारा 32 के तहत समाप्ति के समान है?
  3. कार्यवाही समाप्त करने वाले आदेश से व्यथित पक्ष के पास क्या कानूनी उपाय उपलब्ध हैं?

कोर्ट का विश्लेषण

1. कार्यवाही समाप्त करने की शक्ति का स्रोत कोर्ट ने अधिनियम की धारा 25 (पक्ष की चूक), 30 (समझौता), 38 (जमा राशि/फीस) और 32 (समाप्ति) का विश्लेषण किया। पीठ ने माना कि धारा 32 व्यापक है और ट्रिब्यूनल द्वारा कार्यवाही समाप्त करने की शक्ति का एकमात्र स्रोत है।

जस्टिस पारदीवाला ने फैसले में लिखा:

“अधिनियम, 1996 की योजना के तहत कार्यवाही को समाप्त करने की शक्ति केवल धारा 32(2) में निहित है। अन्य प्रावधान, अर्थात् धारा 25, 30 और 38, केवल उन परिस्थितियों को दर्शाते हैं जिनमें ट्रिब्यूनल धारा 32(2) का सहारा लेने और कार्यवाही समाप्त करने के लिए सशक्त होगा।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 32(3) में वर्णित वाक्यांश “आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल का मैंडेट (अधिकार) समाप्त हो जाएगा” समाप्ति के सभी रूपों पर लागू होता है। कोर्ट ने कहा कि चाहे कार्यवाही अंतिम अवार्ड पारित होने से समाप्त हो, दावे वापस लेने से, या फीस न देने के कारण – कानूनी प्रभाव समान रहता है, यानी इसके बाद ट्रिब्यूनल के पास उस मामले में कार्य करने का अधिकार नहीं रह जाता।

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2. ‘प्रोसीजरल रिव्यू’ और रिकॉल एप्लिकेशन कोर्ट ने माना कि आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल के पास कार्यवाही समाप्त करने वाले आदेश को वापस लेने (Recall) की अंतर्निहित शक्ति (Inherent Power) होती है, जिसे ‘प्रोसीजरल रिव्यू’ कहा जाता है। यह गुण-दोष (Merits) पर समीक्षा से अलग है। यह शक्ति केवल रिकॉर्ड पर स्पष्ट त्रुटि को सुधारने या किसी अनदेखे भौतिक तथ्य को संबोधित करने के लिए है।

3. कानूनी उपाय: धारा 14(2) समाप्ति आदेशों के खिलाफ उपायों के संबंध में विधायी रिक्ति (legislative gap) को स्वीकार करते हुए, कोर्ट ने धारा 14(2) की उद्देश्यपरक व्याख्या अपनाई। कोर्ट ने कहा:

“हमारा सुविचारित मत है कि धारा 14 उप-धारा (2), विशेष रूप से अभिव्यक्ति ‘मैंडेट की समाप्ति पर निर्णय लेने के लिए न्यायालय’, को व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए ताकि इसमें कार्यवाही की समाप्ति के आदेश को चुनौती देना भी शामिल हो सके।”

निर्धारित प्रक्रिया:

  1. रिकॉल एप्लिकेशन: सबसे पहले ट्रिब्यूनल के समक्ष समाप्ति आदेश को वापस लेने का आवेदन करें।
  2. धारा 14(2) याचिका: यदि रिकॉल खारिज हो जाता है, तो धारा 14(2) के तहत कोर्ट जाएं।
  3. धारा 11 के तहत नई याचिका नहीं: पक्षकार नई नियुक्ति के लिए धारा 11 का उपयोग नहीं कर सकते।

फैसला और निर्देश

आर्बिट्रल फीस पर: कोर्ट ने ओएनजीसी बनाम एफकॉन्स गुनानुसा जेवी (2022) के फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि यदि फीस पर सहमति नहीं बनती है, तो मध्यस्थ ‘चौथी अनुसूची’ के अनुसार फीस तय कर सकते हैं, जो पक्षों पर बाध्यकारी होगी। इस मामले में, चूंकि फीस चौथी अनुसूची के तहत तय की गई थी, इसलिए अपीलकर्ता इस पर आपत्ति नहीं कर सकते थे। कोर्ट ने पाया कि भुगतान न करने पर धारा 38 के तहत कार्यवाही समाप्त करने के मध्यस्थ के निर्णय में कोई त्रुटि नहीं थी।

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अंतिम आदेश: हालाँकि, यह देखते हुए कि 2022 में जब कार्यवाही समाप्त की गई थी, तब समाप्ति और उपायों से संबंधित कानून स्पष्ट नहीं था और अनिश्चितता की स्थिति थी, कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को राहत प्रदान की।

पीठ ने कहा:

“इस मामले के विशेष तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि पक्षकार अपने विवाद के समाधान के किसी भी साधन से वंचित न रहें, हम अपीलकर्ताओं को एक और दौर की मध्यस्थता के माध्यम से इसे हल करने का एक अंतिम अवसर देने के लिए इच्छुक हैं।”

अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया और मामले को एक वैकल्पिक मध्यस्थ (Substitute Arbitrator) की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट वापस भेज दिया गया।

कानून मंत्रालय के लिए सुझाव: कोर्ट ने लंबित आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन बिल, 2024 के लिए महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए, जिसमें समाप्ति शक्तियों को एक ही प्रावधान में समेकित करना (जैसे SIAC/LCIA नियम) और ट्रिब्यूनल की समीक्षा/रिकॉल की शक्ति के लिए स्पष्ट प्रावधान करना शामिल है।

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