सुप्रीम कोर्ट करेगा बाल विवाह रद्द करने की आयु सीमा पर फैसला

बाल विवाह से जुड़े जटिल कानूनी मुद्दों पर प्रकाश डालते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने यह तय करने पर सहमति जताई है कि पुरुषों के लिए विवाह रद्द करने की कानूनी उम्र 18 वर्ष होनी चाहिए या 21 वर्ष। यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका के जवाब में लिया गया है।

यह विवाद बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA) की व्याख्या से जुड़ा है, जिसमें यह प्रावधान है कि बाल विवाह को बालिग होने के दो वर्षों के भीतर रद्द किया जा सकता है। हालांकि, यहां ‘बालिग’ होने की आयु—18 वर्ष या 21 वर्ष—परस्पर विवाद का विषय बन गई है।

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं, जो तब शुरू हुआ जब एक पति ने 23 वर्ष की उम्र में अपनी शादी रद्द करने की अपील की। पति का दावा है कि उसकी शादी 12 साल की उम्र में हुई थी, जबकि उसकी पत्नी उस समय केवल 9 साल की थी। परिवार न्यायालय ने पहले उनकी अपील को समय सीमा के उल्लंघन के आधार पर खारिज कर दिया था। हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि उसे 23 वर्ष की उम्र तक अपनी याचिका दाखिल करने का अधिकार था।

हाईकोर्ट के इस फैसले ने PCMA के तहत पुरुषों को दी गई सुरक्षा और विधेयक की समानता के सिद्धांत पर बहस छेड़ दी है। याचिकाकर्ता-पत्नी का कहना है कि यह व्याख्या महिलाओं को दी गई सुरक्षा को कमजोर करती है, क्योंकि आम तौर पर महिलाएं बाल विवाह के मामले में अधिक असुरक्षित होती हैं। इसके अलावा, पत्नी ने यह भी तर्क दिया है कि 18 साल की उम्र को, जो मेजॉरिटी एक्ट, 1875 के तहत कानूनी परिपक्वता की उम्र है, शादी को चुनौती देने की समय सीमा से अलग मानना अनुचित है।

इस मामले को और जटिल बनाते हुए पत्नी ने तर्क दिया कि उसका पति, जो कि एक डेंटल सर्जन है, पहले से ही कानूनी रूप से परिपक्व था और उसने विवाह को चुनौती देने के लिए बहुत देर कर दी। वह यह भी कहती है कि हाईकोर्ट का फैसला पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक समय देने का अनुचित लाभ देता है, जो कानून की मंशा और समानता के खिलाफ है।

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यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के सामने है, जो यह तय करेगा कि बाल विवाह को रद्द करने के लिए पुरुषों की कानूनी आयु 18 वर्ष होनी चाहिए या 21 वर्ष। यह फैसला न केवल PCMA के प्रावधानों की व्याख्या को स्पष्ट करेगा, बल्कि लैंगिक समानता और कानूनी परिपक्वता की अवधारणा पर भी गहरा प्रभाव डालेगा।

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