इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मामले में न तो शिकायतकर्ता है और न ही पीड़ित, तो उसे उस मामले में आरोपी की जमानत रद्द करने की मांग करने का कोई वैधानिक अधिकार (locus standi) नहीं है। कोर्ट ने इसे ‘व्यक्तिगत प्रतिशोध’ (personal vendetta) से प्रेरित याचिका करार देते हुए याचिकाकर्ता पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया है।
जस्टिस कृष्ण पहल की पीठ ने कहा कि किसी तीसरे पक्ष या ‘अजनबी’ (stranger) को आपराधिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
मामले की पृष्ठभूमि (Background)
याचिकाकर्ता निखिल कुमार ने हाईकोर्ट में एक आवेदन दायर कर विपक्षी संख्या 2 (आरोपी) को दी गई जमानत रद्द करने की मांग की थी। आरोपी को वर्ष 2012 में थाना साहिबाबाद, गाजियाबाद में दर्ज मुकदमा अपराध संख्या 1310/2012 (धारा 302 और 120-बी आईपीसी) के तहत एक हत्या के मामले में 16 मार्च 2016 को जमानत दी गई थी।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता का तर्क: याचिकाकर्ता के वकील श्री राम प्रकाश द्विवेदी ने तर्क दिया कि उनका मुवक्किल एक “पीड़ित व्यक्ति” (aggrieved person) है। उनका कहना था कि 2012 के मामले में जमानत पर रिहा होने के बाद, आरोपी ने 9 नवंबर 2017 को याचिकाकर्ता के पिता की हत्या कर दी, जिसका मुकदमा अपराध संख्या 3080/2017 के रूप में दर्ज है। याचिकाकर्ता ने आशंका जताई कि यदि आरोपी जमानत पर बाहर रहता है, तो वह अन्य अपराध कर सकता है, जिसमें याचिकाकर्ता की हत्या भी शामिल हो सकती है।
विपक्षी का तर्क: विपक्षी संख्या 2 के वकील श्री आनंद पति तिवारी ने याचिका का कड़ा विरोध करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता का 2012 के इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 301 या 2(wa) के तहत याचिकाकर्ता इस मामले में न तो गवाह है और न ही पीड़ित। उन्होंने इसे कोर्ट की प्रक्रिया का दुरुपयोग बताया।
कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
पीड़ित की परिभाषा और Locus Standi: हाईकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता 2012 के मुकदमे के लिए पूरी तरह से “एलियन” (अनजान/बाहरी) है। कोर्ट ने ‘पीड़ित’ (Victim) की वैधानिक परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहा:
“याचिकाकर्ता को जमानत रद्द करने की मांग करने का कोई अधिकार (locus) नहीं है क्योंकि वह वर्तमान कार्यवाही के लिए अजनबी है। वह ‘पीड़ित’ की वैधानिक अवधारणा के अंतर्गत नहीं आता है, जो केवल उस व्यक्ति (या उसके अभिभावक/कानूनी उत्तराधिकारी) तक सीमित है जिसे उस विशिष्ट मामले में हानि या चोट पहुंची हो।”
व्यक्तिगत प्रतिशोध पर टिप्पणी: कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि पीड़ित के अधिकारों का विस्तार इसलिए किया गया था ताकि वे अपने मामलों में सशक्त हो सकें, न कि इसलिए कि एक मामले का पीड़ित किसी दूसरे असंबंधित मामले में प्रतिशोध लेने के लिए हस्तक्षेप करे।
“अदालतों को व्यक्तिगत हिसाब चुकता करने (settle personal scores) के माध्यम के रूप में उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”
वकील की भूमिका पर टिप्पणी: पीठ ने इस तरह की आधारहीन याचिका दायर करने में सहायता करने के लिए वकील के आचरण पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की। कोर्ट ने कहा कि यह एक वकील का कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल को ऐसी तुच्छ याचिकाएं दायर करने से रोके, ताकि न्यायिक समय बर्बाद न हो।
आदेश
हाईकोर्ट ने याचिका को गुण-दोष रहित (devoid of merits) मानते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने याचिकाकर्ता निखिल कुमार पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया है, जिसे दो सप्ताह के भीतर ‘हाईकोर्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी’ (High Court Legal Services Authority) के खाते में जमा करना होगा।
मामले को अनुपालन रिपोर्ट के लिए 9 दिसंबर, 2025 को सूचीबद्ध किया गया है।
केस विवरण
- केस शीर्षक: निखिल कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
- केस संख्या: Criminal Misc. Bail Cancellation Application No. 355 of 2025
- कोरम: जस्टिस कृष्ण पहल




