सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे जाने के बाद राष्ट्रपति उस विधेयक पर सहमति नहीं देते हैं, तो संबंधित राज्य सरकार सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है।
यह फैसला तमिलनाडु सरकार की उस याचिका पर आया है जिसमें राष्ट्रपति की सहमति में अत्यधिक देरी को चुनौती दी गई थी। यह विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित किए गए थे लेकिन राज्यपाल आर. एन. रवि ने उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजकर रोक दिया था।
8 अप्रैल को आया फैसला और मुख्य बिंदु

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने यह निर्णय देते हुए न केवल तमिलनाडु के 10 विधेयकों को मंजूरी दिलवाई बल्कि सभी राज्यपालों के लिए विधायी सहमति के मामलों में एक निश्चित समयसीमा भी निर्धारित की।
न्यायमूर्ति पारदीवाला द्वारा लिखे गए इस 415 पृष्ठों के विस्तृत निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों की गहराई से व्याख्या की गई है।
- अनुच्छेद 200: राज्यपाल के पास विधानसभा से पारित विधेयक पर सहमति देने, असहमति जताने या राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने का विकल्प होता है।
- अनुच्छेद 201: यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति द्वारा उस पर निर्णय लेने की प्रक्रिया इससे संबंधित होती है।
कोर्ट की अहम टिप्पणी
कोर्ट ने कहा, “जहां राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखते हैं और राष्ट्रपति बाद में उस पर सहमति नहीं देते, तो राज्य सरकार को इस कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का अधिकार है।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का निर्णय मनमाना नहीं होना चाहिए। यह निर्णय केवल उन स्थितियों में लिया जाना चाहिए जब विधेयक लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को खतरे में डालता हो या कोई असाधारण संवैधानिक संकट उत्पन्न करता हो।
राजनीतिक कारण या असंतोष आधार नहीं हो सकते
न्यायालय ने चेतावनी दी कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को केवल व्यक्तिगत असंतोष, राजनीतिक कारण या अन्य असंगत आधारों पर राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो वह निर्णय असंवैधानिक होगा और तुरंत न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।
राष्ट्रपति की सहमति न देने की प्रक्रिया भी न्यायिक समीक्षा के योग्य
अगर राष्ट्रपति विधेयक पर असहमति जताते हैं और वह निर्णय पक्षपातपूर्ण या दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होता है, तो सुप्रीम कोर्ट उसकी समीक्षा कर सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि विधेयक की संवैधानिकता पर संदेह हो, तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी चाहिए ताकि निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।
यह फैसला न केवल तमिलनाडु जैसे राज्यों के लिए राहत लेकर आया है बल्कि भारत के संघीय ढांचे में कार्यपालिका और विधायिका के बीच संतुलन बनाए रखने की दिशा में भी एक मजबूत संवैधानिक संदेश है।