पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि यदि कोई सैनिक सैन्य अभियान के दौरान किसी साथी सैनिक की गोली से मारा जाता है, तो उसे भी “किल्ड इन एक्शन” (युद्ध में शहीद) के समान माना जाएगा और उसके परिवार को वही लाभ दिए जाएंगे जो युद्ध में शहीद हुए जवानों के परिजनों को मिलते हैं।
यह फैसला उस याचिका पर आया जिसमें केंद्र सरकार ने 22 फरवरी 2022 को सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (AFT) द्वारा दिए गए आदेश को चुनौती दी थी। AFT ने भारतीय सेना के जवान की मां रुक्मणि देवी के पक्ष में आदेश देते हुए उनके बेटे की मृत्यु के लिए उदार पारिवारिक पेंशन (Liberalised Family Pension) पर विचार करने को कहा था। रुक्मणि देवी के बेटे की मृत्यु 21 अक्टूबर 1991 को जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन रक्षक के दौरान एक साथी सैनिक की गोली लगने से हुई थी।
न्यायमूर्ति अनूपिंदर सिंह ग्रेवाल और न्यायमूर्ति दीपक मंचंदा की पीठ ने केंद्र सरकार की अपील खारिज करते हुए कहा कि पेंशन का दावा निरंतर अधिकार का विषय है, इस पर देरी का आधार नहीं बनाया जा सकता।

पीठ ने कहा, “यह स्पष्ट है कि एक सैनिक, जो सैन्य अभियान में तैनात था और साथी सैनिक की गोली से मारा गया, उसे उन सैनिकों के बराबर लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता जो कार्रवाई में मारे जाते हैं।”
केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि AFT ने 4 सितंबर 2017 के एक पुराने फैसले पर भरोसा किया, जो ऑपरेशन पराक्रम में शहीद हुए सैनिक के मामले में था, जबकि रुक्मणि देवी का मामला अलग है। साथ ही दावा किया गया कि 1991 में मृत्यु के बाद 2018 में दावा दायर करना बहुत देर से किया गया था।
इन दलीलों को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि सैनिक की मृत्यु को पहले ही 27 अगस्त 1992 के आर्मी एयर डिफेंस रिकॉर्ड आदेश के अनुसार “बैटल कैजुअल्टी” घोषित किया जा चुका है, और इसमें कोई विवाद नहीं है कि वह ऑपरेशन रक्षक के दौरान ड्यूटी पर था।
कोर्ट ने रक्षा मंत्रालय द्वारा जनवरी 2001 में जारी निर्देशों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे सभी अभियान जिनकी सरकार द्वारा अधिसूचना जारी की गई है, उनके दौरान हुई मृत्यु, दुर्घटना या विकलांगता को ‘कैटेगरी E’ के तहत माना जाएगा और इसके अनुसार लाभ दिए जाएंगे।