एकल प्रतिकूल प्रविष्टि भी अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए पर्याप्त: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को बरकरार रखा

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न्यायिक अधिकारी रमेश कुमार यादव की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को सही ठहराते हुए कहा है कि ईमानदारी से संबंधित एक भी प्रतिकूल प्रविष्टि इस प्रकार की कार्रवाई को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त है। न्यायमूर्ति अश्वनी कुमार मिश्र और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने 22 अप्रैल 2025 को रिट-ए नं. 12020 ऑफ 2022 में यह निर्णय सुनाया, और यादव द्वारा राज्य सरकार के सेवानिवृत्ति आदेश को दी गई चुनौती को खारिज कर दिया।

पृष्ठभूमि:

रमेश कुमार यादव ने 24 मार्च 2001 को मुंसिफ/सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में न्यायिक सेवा में प्रवेश किया था और बाद में उच्चतर न्यायिक सेवा में पदोन्नत हुए। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट की पूर्णपीठ की अनुशंसा पर आधारित स्क्रीनिंग समिति की रिपोर्ट के आधार पर 29 नवंबर 2021 को उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्त कर दिया, जबकि उनकी स्वाभाविक सेवानिवृत्ति फरवरी 2026 में निर्धारित थी।

याचिकाकर्ता के तर्क:

स्वयं पेश होकर यादव ने तर्क दिया कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए कोई पर्याप्त प्रतिकूल सामग्री नहीं थी। उन्होंने कहा कि स्क्रीनिंग समिति ने अप्रासंगिक सामग्रियों पर निर्भर होकर और उनके सकारात्मक सेवा रिकॉर्ड की अनदेखी करते हुए अनुचित तरीके से रिपोर्ट दी। उन्होंने यह भी जोर दिया कि सतर्कता जांच में उन्हें “बाहरी कारणों से जमानत आदेश पारित करने” के आरोपों से बरी कर दिया गया था।

यादव ने विशेष रूप से निम्नलिखित पर आपत्ति जताई:

  • वर्ष 2008-09 के लिए दर्ज प्रतिकूल ईमानदारी टिप्पणी।
  • विधानसभा सचिवालय की शिकायत के आधार पर जारी की गई एक चेतावनी।
  • रिवॉल्वर की अवैध खरीद-फरोख्त और न्यायिक आदेशों में अनियमितता से संबंधित एक निंदा प्रविष्टि।

उन्होंने बैikuntha Nath Das बनाम मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी (1992) और Madan Mohan Chaudhary बनाम बिहार राज्य (1993) सहित कई सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया।

प्रतिवादियों के तर्क:

हाईकोर्ट और राज्य सरकार की ओर से अधिवक्ता आशीष मिश्रा ने पक्ष रखते हुए कहा कि रिकॉर्ड में पर्याप्त प्रतिकूल सामग्री उपलब्ध थी जो कार्रवाई को उचित ठहराती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि कानून के अनुसार, ईमानदारी से जुड़ी एक भी प्रतिकूल प्रविष्टि अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आधार बन सकती है। उन्होंने प्यारे मोहन लाल बनाम झारखंड राज्य (2010) के निर्णय पर भी भरोसा किया।

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न्यायालय का विश्लेषण:

कोर्ट ने सेवा रिकॉर्ड और प्रस्तुत प्रतिकूल सामग्रियों का सावधानीपूर्वक परीक्षण किया और पाया कि:

  • वर्ष 2008-09 की प्रतिकूल ईमानदारी प्रविष्टि अंतिम रूप से मान्य थी और उसे प्रासंगिक सामग्री माना गया।
  • यादव को जारी चेतावनी भले ही स्वयं में प्रतिकूल प्रविष्टि न हो, लेकिन समग्र सेवा मूल्यांकन में उसे ध्यान में रखा जा सकता है।
  • सतर्कता जांच के उपरांत वर्ष 2012 में दी गई निंदा प्रविष्टि वैध पाई गई और उस पर कोई चुनौती नहीं दी गई थी।
  • जिला जज चंदौली द्वारा 2018-19 में दर्ज की गई प्रतिकूल प्रविष्टि को हटाया जा चुका था, इसलिए उसे विचार योग्य नहीं माना गया।

प्यारे मोहन लाल निर्णय का हवाला देते हुए पीठ ने टिप्पणी की कि, “किसी अधिकारी की ईमानदारी से संबंधित एक भी प्रतिकूल प्रविष्टि, भले ही वह अतीत में हो, अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए पर्याप्त है।”

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि न्यायिक अधिकारियों से अपेक्षित आचरण का स्तर विशिष्ट होता है, यह कहते हुए कि, “जनता को किसी न्यायिक कार्य करने वाले व्यक्ति से लगभग निर्दोष आचरण की अपेक्षा करने का अधिकार है,” और न्यायाधीशों को “निर्दोष ईमानदारी और निर्विवाद स्वतंत्रता” प्रदर्शित करनी चाहिए।

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निर्णय:

कोर्ट ने पाया कि प्रतिकूल ईमानदारी प्रविष्टि और निंदा प्रविष्टि के आधार पर यह राय बनाना उचित था कि यादव सेवा में बने रहने के उपयुक्त नहीं हैं। इसलिए, हाईकोर्ट की पूर्णपीठ की अनुशंसा और राज्य सरकार के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति दंडात्मक नहीं है, बल्कि सार्वजनिक हित में, न्यायिक व्यवस्था की गरिमा और जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए की गई कार्रवाई है।

तदनुसार, रिट याचिका बिना किसी लागत के खारिज कर दी गई।

संदर्भ:

रमेश कुमार यादव बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय एवं अन्य, न्यूट्रल सिटेशन नं.: 2025:AHC:60142-DB

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