सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सेशंस कोर्ट को किसी दोषी को बिना रिमिशन के “प्राकृतिक जीवन के अंत तक” आजीवन कारावास की सजा देने का अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि रिमिशन को बाहर रखने वाली विशेष श्रेणी की सजा देने की शक्ति केवल संवैधानिक न्यायालयों—सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों—के पास है, न कि ट्रायल कोर्ट के पास।
यह फैसला न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने किरण बनाम कर्नाटक राज्य मामले में दिया। अदालत ने आंशिक रूप से उस दोषी की अपील स्वीकार की, जिसे सेशंस कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा देते हुए सीआरपीसी की धारा 428 के तहत सेट-ऑफ का लाभ भी नहीं दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 1 जनवरी 2014 को हुई एक विधवा महिला की नृशंस हत्या से जुड़ा है, जो पाँच बच्चों की मां थी। अभियोजन के अनुसार, आरोपी—जो पीड़िता का रिश्ते में देवर लगता था—रात करीब 11:30 बजे उसकी झुग्गी में घुसा। जब पीड़िता ने उसके कथित “कामुक प्रयासों” का विरोध किया, जो पहले से जारी थे, तो आरोपी ने उस पर केरोसिन डालकर आग लगा दी।
पीड़िता को लगभग 60 प्रतिशत जलन हुई और वह दस दिन बाद दम तोड़ गई। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई और यह निर्देश दिया कि सजा उसके प्राकृतिक जीवन के अंत तक होगी। साथ ही, धारा 428 सीआरपीसी के तहत सेट-ऑफ का लाभ भी नकार दिया गया।
साक्ष्य और दलीलें
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही नोटिस सीमित रूप से सजा के प्रश्न पर जारी किया गया था, फिर भी अदालत ने यह सुनिश्चित करने के लिए साक्ष्यों की जांच की कि दोषसिद्धि ठोस आधार पर की गई है।
अदालत ने पाया कि पीड़िता के पिता (पीडब्ल्यू-1) और बेटी (पीडब्ल्यू-7) जैसे अहम गवाह hostile हो गए थे। हालांकि, पड़ोसियों सहित स्वतंत्र गवाहों (पीडब्ल्यू-8 और पीडब्ल्यू-24) ने घटना स्थल पर आरोपी की मौजूदगी और उसके भागने की पुष्टि की।
अभियोजन का मुख्य आधार मृतका के मृत्यु पूर्व कथन (डाइंग डिक्लेरेशन) रहे। पुलिस द्वारा दर्ज कथन (एक्ज़िबिट पी-27) में आरोपी को स्पष्ट रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था। वहीं, मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट को भेजे गए एक प्रारंभिक अनुरोध (एक्ज़िबिट डी-1) में आत्महत्या का उल्लेख था। इसे स्टेशन हाउस ऑफिसर (पीडब्ल्यू-25) ने भाषा संबंधी कठिनाई के कारण हुई त्रुटि बताया, यह कहते हुए कि वह तेलुगु भाषा में प्रभावी संवाद नहीं कर पा रहा था।
महत्वपूर्ण रूप से, मजिस्ट्रेट (पीडब्ल्यू-21) द्वारा ड्यूटी डॉक्टर (पीडब्ल्यू-22) की मौजूदगी में दर्ज मृत्यु पूर्व कथन में आरोपी की भूमिका और उसके पूर्व आचरण का विस्तार से उल्लेख किया गया था।
अदालत की टिप्पणियां
दोषसिद्धि पर
सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए कहा:
“मामले के रिकॉर्ड से सामने आई परिस्थितियों की समग्रता को देखते हुए, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दोषसिद्धि सही तरीके से की गई है।”
पीठ ने माना कि चिकित्सीय साक्ष्य, मृत्यु पूर्व कथन और स्वतंत्र गवाहों की पुष्टि से आरोपी का अपराध संदेह से परे साबित होता है।
सेशंस कोर्ट की शक्ति पर
मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या सेशंस कोर्ट ‘शेष जीवन तक’ आजीवन कारावास की सजा दे सकती है और रिमिशन या सेट-ऑफ को बाहर कर सकती है।
संविधान पीठ के फैसले यूनियन ऑफ इंडिया बनाम वी. श्रीहरन उर्फ मुरुगन (2016) और स्वामी श्रद्धानंद (2) बनाम कर्नाटक राज्य (2008) का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि मृत्युदंड के विकल्प के रूप में रिमिशन से परे आजीवन कारावास जैसी विशेष श्रेणी की सजा गढ़ने की शक्ति केवल उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट को है।
पीठ ने कहा:
“रिमिशन के बिना आजीवन कारावास की सजा देने की शक्ति केवल संवैधानिक न्यायालयों को दी गई है, सेशंस कोर्ट को नहीं।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि सेशंस कोर्ट न तो सीआरपीसी की धारा 432 से 435 के तहत रिमिशन और कम्यूटेशन की वैधानिक शक्ति को सीमित कर सकती है और न ही संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत निहित शक्तियों में दखल दे सकती है।
अदालत ने यह भी कहा:
“आजीवन कारावास का अर्थ निस्संदेह पूरे जीवन से है, जिसे सेशंस कोर्ट सीमित नहीं कर सकती। न ही सेशंस कोर्ट, जो स्वयं सीआरपीसी की देन है, धारा 428 सीआरपीसी के उस प्रावधान को खत्म कर सकती है, जिसने उसे अस्तित्व दिया है।”
धारा 428 सीआरपीसी के तहत सेट-ऑफ
ट्रायल के दौरान हिरासत में बिताई गई अवधि के लिए सेट-ऑफ से इनकार करने के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने कानूनन अस्थिर बताया।
अदालत ने कहा:
“धारा 428 सीआरपीसी का वैधानिक आदेश यह है कि जांच, पूछताछ या ट्रायल के दौरान हिरासत में बिताई गई अवधि को कारावास की अवधि में समायोजित किया जाएगा। सेशंस कोर्ट द्वारा सेट-ऑफ न देने का निर्देश हटाया जाना आवश्यक है, क्योंकि इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए सजा में संशोधन किया। धारा 302 आईपीसी के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया, लेकिन “प्राकृतिक जीवन के अंत तक” कारावास का निर्देश रद्द कर दिया गया।
अदालत ने आदेश दिया कि:
- सजा को सामान्य आजीवन कारावास में परिवर्तित किया जाता है
- आरोपी को धारा 428 सीआरपीसी के तहत सेट-ऑफ का लाभ मिलेगा
- आरोपी सरकारी नीति के अनुसार रिमिशन या कम्यूटेशन के लिए पात्र होगा
पीठ ने यह भी कहा कि यह मामला उस श्रेणी का नहीं है, जिसमें बिना रिमिशन निश्चित अवधि की विशेष सजा आवश्यक हो, जैसा कि राज्य द्वारा उद्धृत रविंदर सिंह बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) मामले में था।
केस विवरण
- मामले का नाम: किरण बनाम कर्नाटक राज्य
- मामला संख्या: आपराधिक अपील संख्या 2025 (विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 15786/2024 से)
- उद्धरण: 2025 INSC 1453
- पीठ: न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन

