एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट, लखनऊ पीठ ने इस सिद्धांत की पुष्टि की है कि तय की गई वरिष्ठता को लंबे समय के बाद भी बरकरार नहीं रखा जा सकता। यह फैसला न्यायमूर्ति आलोक माथुर ने शिव दत्त जोशी एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य [रिट-ए संख्या 9193/2023], साथ ही संजीव कुमार सिन्हा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य [रिट-ए संख्या 5381/2024] के मामले में सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद सचिवालय प्रशासन विभाग, उत्तर प्रदेश में समीक्षा अधिकारियों की वरिष्ठता के इर्द-गिर्द घूमता था। याचिकाकर्ताओं को, जिन्हें शुरू में 1990 में जूनियर ग्रेड क्लर्क के रूप में नियुक्त किया गया था और बाद में 2005 में सहायक समीक्षा अधिकारी के रूप में पदोन्नत किया गया था, 2016 में समीक्षा अधिकारी के पद पर पदोन्नति दी गई थी। याचिकाकर्ताओं को यूपी सरकारी सेवक वरिष्ठता नियम, 1991 के तहत 30 जून, 2016 से उनकी पदोन्नति के आधार पर वरिष्ठता दी गई थी।
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हालांकि, 9 अगस्त, 2023 को राज्य सरकार ने याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति की तारीख 30 जून, 2016 से बदलकर 13 जुलाई, 2016 करने का आदेश जारी किया। इस संशोधन के कारण याचिकाकर्ताओं को वरिष्ठता सूची में पीछे धकेल दिया गया, जिससे उनकी पदोन्नति की संभावनाएं प्रभावित हुईं और उन्हें 2013 बैच के सीधी भर्ती वाले उम्मीदवारों से नीचे रखा गया। इसके बाद 6 सितंबर, 2023 को अंतिम वरिष्ठता सूची जारी की गई और तदनुसार 25 अक्टूबर, 2023 को सीधी भर्ती वाले उम्मीदवारों के पक्ष में पदोन्नति दी गई।
मुख्य कानूनी मुद्दे
हाई कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न थे:
क्या याचिकाकर्ताओं की स्थापित वरिष्ठता को कई वर्षों के अंतराल के बाद बदला जा सकता है।
क्या राज्य सरकार के पास वैधानिक प्रावधानों की अनुपस्थिति में अंतिम रूप से तैयार वरिष्ठता सूची की समीक्षा करने का अधिकार है।
क्या वरिष्ठता सूची में संशोधन मनमाना था और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।
कोर्ट की टिप्पणियां और निर्णय
एक कड़े शब्दों वाले फैसले में, कोर्ट ने फैसला सुनाया कि विवादित आदेशों ने स्टेयर डेसिसिस के स्थापित कानूनी सिद्धांत का उल्लंघन किया है और इसे कानून में बरकरार नहीं रखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के कई उदाहरणों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा:
“एक बार स्थापित की गई वरिष्ठता कई वर्षों के अंतराल के बाद भी अस्थिर नहीं हो सकती। स्टेयर डेसिसिस एट नॉन क्विटा मूवर एक लैटिन मुहावरा है जिसका अर्थ है ‘निर्णय लिए गए मामलों पर कायम रहना और तय मुद्दों को न छेड़ना।’”
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य सरकार ने याचिकाकर्ताओं की वरिष्ठता को तीन बार बरकरार रखा और 2016, 2019 और 2022 में सीधी भर्ती करने वालों की आपत्तियों को खारिज कर दिया। एक बार जब कोई अधिकारी वरिष्ठता निर्धारित करने में अर्ध-न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करता है, तो वह अपने स्वयं के निर्णय से बंधा होता है जब तक कि वैधानिक नियमों के तहत समीक्षा का प्रावधान मौजूद न हो।
अदालत ने फंक्टस ऑफ़िसियो के सिद्धांत को भी रेखांकित किया, जिसमें कहा गया कि राज्य सरकार बार-बार किसी ऐसे मुद्दे की फिर से जांच नहीं कर सकती जो पहले ही अंतिम रूप ले चुका हो। ललित नारायण मिश्रा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2016 एससीसी ऑनलाइन एचपी 2866) से उद्धृत करते हुए, निर्णय में कहा गया:
“‘फंक्टस ऑफ़िसियो’ का अर्थ है कि एक सार्वजनिक अधिकारी मूल आयोग के कर्तव्यों और कार्यों को पूरी तरह से पूरा करने के बाद आगे के अधिकार या कानूनी क्षमता के बिना है।”
न्यायालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि सभी प्रभावित पक्षों को पक्षकार न बनाए जाने के कारण याचिकाएं विचारणीय नहीं हैं। इसने अजय कुमार शुक्ला बनाम अरविंद राय (2022) 12 एससीसी 579 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि सेवा-संबंधी विवादों में, प्रभावित कर्मचारियों के प्रतिनिधि वर्ग को पक्षकार बनाना ही पर्याप्त है।
अंतिम फैसला
हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के 9 अगस्त, 2023 के आदेश, 6 सितंबर, 2023 की संशोधित वरिष्ठता सूची और 25 अक्टूबर, 2023 के परिणामी पदोन्नति आदेशों को रद्द कर दिया। प्रतिवादियों को 13 जुलाई, 2016 से याचिकाकर्ताओं की वरिष्ठता बहाल करने और तदनुसार एक नई वरिष्ठता सूची तैयार करने का निर्देश दिया गया।
प्रतिनिधित्व
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता गौरव मेहरोत्रा, रानी सिंह, रितिका सिंह, हर्षवर्धन मेहरोत्रा और जय नारायण पांडे ने किया, जबकि राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त महाधिवक्ता कुलदीप पति त्रिपाठी और अखिलेश कुमार कालरा ने किया। प्रतिवादियों के अन्य वकीलों में ज्योतिरेश पांडे, पूजा सिंह, राजेश चंद्र मिश्रा, संतोष कुमार मिश्रा और वरदराज श्रीदत्त ओझा शामिल थे।