न्यायमूर्ति पामिडिघंटम श्री नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमल्या बागची की पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें पति के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, 324, 355, 504, 506 और 149 के तहत लंबित आपराधिक कार्यवाही को खारिज कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब हमले के आरोप चिकित्सीय प्रमाण और स्वतंत्र गवाह से समर्थित हों, तो मात्र वैवाहिक विवाद लंबित होने के आधार पर कार्यवाही को खारिज नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस स्तर पर ‘मिनी-ट्रायल’ चलाना विधिसम्मत नहीं है।
प्रकरण की पृष्ठभूमि:
अपीलकर्ता ने वर्ष 2012 में हुए विवाह के बाद पति और ससुराल पक्ष द्वारा मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न तथा दहेज मांग का आरोप लगाया। शिकायत के अनुसार, 27 अक्टूबर 2020 को पति और अन्य ससुरालजन अपीलकर्ता के मायके आए और मिर्च पाउडर फेंककर, गालियाँ देकर और चप्पल व पत्थरों से हमला किया। एक पड़ोसी सुवर्णा अंद्रे ने हस्तक्षेप कर उन्हें बचाया।
घटना की जांच के बाद पुलिस ने आरोपी पति और अन्य के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किया। हाईकोर्ट ने वृद्ध माता-पिता के विरुद्ध कार्यवाही को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि उनके खिलाफ प्रत्यक्ष आरोप नहीं थे। बाद में एक अलग एकल पीठ ने पति के विरुद्ध भी कार्यवाही को खारिज कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन और और निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट द्वारा की गई कार्यवाही की आलोचना की और कहा:
“न्यायाधीश ने FIR/चार्जशीट में किए गए आरोपों की सत्यता की जांच करते हुए एक प्रकार से मिनी-ट्रायल चला दिया, जो कि विधिसम्मत नहीं है।”
न्यायालय ने आर.पी. कपूर बनाम पंजाब राज्य [1960] के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि यदि आरोपों का समर्थन करने वाला कानूनी साक्ष्य मौजूद है, तो हाईकोर्ट इस स्तर पर उनका मूल्यांकन नहीं कर सकता:
“धारा 482 के तहत हाईकोर्ट का कार्य यह जांचना नहीं है कि साक्ष्य विश्वसनीय है या नहीं। यह कार्य ट्रायल मजिस्ट्रेट का होता है।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि चोट का प्रमाण पत्र और स्वतंत्र गवाह का बयान आरोपी पति के खिलाफ आरोपों की पुष्टि करता है।
“नेत्रसाक्ष्य और चिकित्सीय साक्ष्य के बीच असंगति का प्रश्न विचारण का विषय है, न कि अभियोजन को प्रारंभिक चरण में समाप्त करने का आधार।”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि एक ही घटना में कई आरोपी शामिल हों तो यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक की भूमिका पृथक रूप से स्पष्ट हो:
“जब अनेक आरोपी एक साझा उद्देश्य या मंशा से अपराध करते हैं, तो प्रत्येक की व्यक्तिगत भूमिका निर्धारित करना अप्रासंगिक हो जाता है।”
इसके अतिरिक्त, केवल इस आधार पर कि वैवाहिक न्यायालय में मामला लंबित है, आपराधिक कार्यवाही को दुर्भावनापूर्ण या दुरुपयोग करार नहीं दिया जा सकता:
“पत्नी पर क्रूरता से संबंधित अपराध सामान्यतः वैवाहिक विवादों से ही उत्पन्न होते हैं… इस प्रकार के अभियोजन को केवल इसलिए दुर्भावनापूर्ण नहीं कहा जा सकता कि वैवाहिक कार्यवाही लंबित है।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि एक समन्वय पीठ द्वारा पहले से पारित आदेश को नजरअंदाज करना न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन है:
“एक ज़िम्मेदार न्यायपालिका की पहचान न्यायिक निर्णयों में संगति है… विपरीत निर्णय जनता का विश्वास डगमगाते हैं और मुकदमेबाज़ी को जुए का खेल बना देते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश दिनांक 16 फरवरी 2024 को रद्द करते हुए आरोपी पति के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को पुनः बहाल कर दिया:
“प्रक्रिया को खारिज करने का आदेश मनमाना एवं न्यायिक अनुशासन के विरुद्ध था… अतः अपील स्वीकृत की जाती है और पति के विरुद्ध कार्यवाही विधि अनुसार जारी रहेगी।”