सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 100 के अंतर्गत द्वितीय अपील केवल तभी स्वीकार्य होती है जब वह अपील प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा दिए गए तथ्यों के आधार पर उत्पन्न किसी महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न से जुड़ी हो।
न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति नोंगमीकपम कोटिश्वर सिंह की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए एक अपील को स्वीकार किया और कर्नाटक हाईकोर्ट के उस निर्णय को रद्द कर दिया जिसमें एक बोना फाइड (सद्भावनापूर्ण) खरीदार के पक्ष में निचली अदालतों द्वारा दिए गए समवर्ती निष्कर्षों में हस्तक्षेप किया गया था।
पीठ ने कहा:

“यह आवश्यक है कि ऐसा कोई महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न हो, जो यदि अपीलकर्ता के पक्ष में उत्तरित किया जाए, तो वह निचली अदालतों के निर्णय और डिक्री को पलट सके। सामान्य रूप से, तथ्यों पर आधारित निष्कर्षों में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।”
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद एक बंटवारे और पृथक कब्जे की मांग से जुड़ी सिविल वाद से उत्पन्न हुआ। अपीलकर्ता गौतम चंद को वादीगण द्वारा दाखिल वाद में प्रतिवादी संख्या 2 बनाया गया था। विवाद अनुसूची ‘A’ की संपत्ति से संबंधित था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विवाद केवल अनुच्छेद संख्या 2 (Item No.2) तक सीमित था।
वर्ष 1977 में अपीलकर्ता और प्रतिवादी संख्या 1 (वादीगण के पिता) के बीच एक बिक्री समझौता हुआ था, जिसके आधार पर 30 जुलाई 1980 को बिक्री विलेख निष्पादित किया गया। हालांकि, बंटवारे का मुकदमा 25 जुलाई 1980 को दायर किया गया था—यानी बिक्री विलेख से कुछ दिन पूर्व। लेकिन महत्वपूर्ण यह रहा कि मुकदमे की समन की तामीली बिक्री विलेख के बाद हुई थी।
निचली अदालतों का निष्कर्ष
वाद न्यायालय (ट्रायल कोर्ट) ने यह मानते हुए कि अपीलकर्ता एक बोना फाइड क्रेता है, Item No.2 को बंटवारे से बाहर रखा। इस निष्कर्ष की पुष्टि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने की और बिक्री को वैध माना।
हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप और सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया
कर्नाटक हाईकोर्ट ने द्वितीय अपील में इन निष्कर्षों को उलटते हुए कहा कि चूंकि संपत्ति संयुक्त परिवार की थी और बिक्री वाद की लंबितता के दौरान हुई, इसलिए बिक्री लिस पेंडेंस (lis pendens) सिद्धांत के तहत अमान्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि यह मामला द्वितीय अपील के लिए उपयुक्त नहीं था क्योंकि यह केवल तथ्यों की पुनर्व्याख्या पर आधारित था, न कि किसी महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न पर।
कोर्ट ने कहा:
“वाद लंबित रहते हुए विक्रय पर कोई निषेध नहीं है। यहां तक कि यह भी तथ्य है कि बिक्री विलेख 30.07.1980 को निष्पादित हुआ जबकि वाद 25.07.1980 को दायर हुआ और समन काफी बाद में तामील हुआ।”
न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि एक कर्ता (Karta) के रूप में प्रतिवादी संख्या 1 को संयुक्त परिवार की संपत्ति का स्थानांतरण करने का अधिकार था, और यह लेनदेन bona fide था।
निष्कर्ष और आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया:
“किसी भी दृष्टिकोण से देखने पर, हाईकोर्ट को निचली अदालतों के द्वारा दिए गए निर्णय और डिक्री में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था… हम हाईकोर्ट द्वारा पारित किए गए आदेश को निरस्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वादीगण अभी भी Item No.2 में अपने हिस्से के लिए अपने पिता (प्रतिवादी संख्या 1) को आवंटित हिस्से से दावा कर सकते हैं।
मामले का शीर्षक: गौतम चंद बनाम ए.जी. शिवकुमार (मृतक) एवं अन्य
विवरण: सिविल अपील संख्या ___/2025 (@ एसएलपी (दीवानी) संख्या 24993/2023)