सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर की 25 साल पुराने मानहानि मामले में दोषसिद्धि को बरकरार रखा, जिसे दिल्ली के उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना ने वर्ष 2000 में दायर किया था। इसके साथ ही लंबे समय से चल रहे इस कानूनी विवाद का पटाक्षेप हो गया है।
न्यायमूर्ति एम.एम. सुनीद्रेश और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट के 29 जुलाई के आदेश में हस्तक्षेप से इनकार किया, जिसमें पाटकर की दोषसिद्धि और “सदाचार पर परिवीक्षा” पर रिहाई को सही ठहराया गया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आंशिक राहत देते हुए उन पर लगाए गए दंड को हटाया और स्पष्ट किया कि निगरानी आदेश लागू नहीं किया जाएगा।
यह मामला 24 नवंबर 2000 को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति से जुड़ा है, जिसमें सक्सेना उस समय गुजरात स्थित एक गैर-सरकारी संगठन ‘नेशनल काउंसिल ऑफ सिविल लिबर्टीज’ के अध्यक्ष थे। सक्सेना का आरोप था कि पाटकर ने उन पर “गुजरात के लोगों और उनके संसाधनों को विदेशी हितों के हाथों गिरवी रखने” का आरोप लगाया, जो अदालत के अनुसार उनकी ईमानदारी और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला था।

मजिस्ट्रेट अदालत ने 1 जुलाई 2024 को पाटकर को भारतीय दंड संहिता की धारा 500 (मानहानि) के तहत दोषी ठहराया। अदालत ने कहा कि उनके बयान “स्वयं में मानहानिकारक” थे और “नकारात्मक धारणा पैदा करने के लिए तैयार किए गए” थे। अदालत ने उन्हें पांच माह के साधारण कारावास और ₹10 लाख के जुर्माने की सजा सुनाई।
2 अप्रैल 2025 को सत्र न्यायालय ने इस दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए उनकी अपील खारिज कर दी, लेकिन उन्हें ₹25,000 के परिवीक्षा बांड पर “सदाचार पर परिवीक्षा” के आधार पर रिहा किया और ₹1 लाख जुर्माना जमा करने की शर्त लगाई।
बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि और सजा दोनों को सही ठहराया, लेकिन परिवीक्षा की शर्त में बदलाव किया। ट्रायल कोर्ट में हर तीन माह में पेश होने की बाध्यता को घटाकर तीन साल में एक बार कर दिया गया और यह अनुमति दी कि वे व्यक्तिगत रूप से, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से या वकील के जरिए पेश हो सकती हैं।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों में कोई अवैधता या गंभीर अनियमितता नहीं थी और पाटकर यह साबित करने में विफल रहीं कि कार्यवाही में कोई ऐसी त्रुटि हुई जिससे न्याय में चूक हुई हो।