सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम सेवा कानून संबंधी फैसले में कहा है कि यदि किसी भर्ती विज्ञापन में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख हो कि अधिसूचित पदों की संख्या बढ़ाई या घटाई जा सकती है, तो प्रतीक्षा सूची (wait list) से बाद में उत्पन्न रिक्तियों पर की गई नियुक्तियां वैध मानी जाएंगी। इस फैसले से उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर ज़िला न्यायालय में कार्यरत चार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है, जिनकी नियुक्तियां आठ वर्ष सेवा देने के बाद यह कहते हुए समाप्त कर दी गई थीं कि वे विज्ञापित रिक्तियों से अधिक थीं।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने इन कर्मचारियों की सेवाएं समाप्त करने को अनुचित ठहराया और जो कर्मचारी अब तक सेवानिवृत्ति आयु तक नहीं पहुंचे हैं, उन्हें पुनः नियुक्त करने तथा सेवानिवृत्त हो चुके कर्मचारियों को न्यूनतम पेंशन देने के निर्देश दिए।
प्रकरण की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता संजय कुमार मिश्रा व अन्य चार कर्मचारियों की नियुक्ति 18 अक्टूबर 2000 को प्रकाशित विज्ञापन के बाद की गई थी। इस विज्ञापन में 12 रिक्त पदों का उल्लेख था, साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया था कि “पदों की संख्या बढ़ाई या घटाई जा सकती है।”
इनकी नियुक्तियां 2001 में चयन सूची से की गईं। लगभग आठ वर्ष बाद, 5 मई 2008 को इनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। एकमात्र आधार यह था कि इनकी नियुक्तियां 12 अधिसूचित पदों से छह अधिक थीं।

कर्मचारियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन एकल पीठ और डिवीजन बेंच दोनों ने समाप्ति को सही ठहराया। इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एम. सी. धींगरा ने तर्क दिया कि समाप्ति आदेश अवैध है, क्योंकि विज्ञापन में स्वयं रिक्तियों की संख्या में परिवर्तन की संभावना का उल्लेख किया गया था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले नसीम अहमद व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2011) 2 SCC 734 पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि नियम 12 के तहत प्रतीक्षा सूची से उचित समय के भीतर उत्पन्न अतिरिक्त रिक्तियों पर नियुक्ति की जा सकती है।
वहीं, जिला जज अंबेडकरनगर की ओर से अधिवक्ता यशवर्धन ने कहा कि विज्ञापन के समय केवल 12 पद रिक्त थे, इसलिए उसके बाद की अतिरिक्त नियुक्तियां न्यायोचित नहीं मानी जा सकतीं।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि वर्तमान मामला नसीम अहमद प्रकरण से “लगभग समान” है। कोर्ट ने कहा:
“विज्ञापन में किया गया यह उल्लेख स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि नियुक्ति प्राधिकारी की मंशा प्रतीक्षा सूची बनाए रखने की थी ताकि अधिसूचित रिक्तियों से अधिक उत्पन्न होने वाली रिक्तियों को नियमों के अनुसार भरा जा सके।”
कोर्ट ने नसीम अहमद मामले में दिए गए “reasonable dimension” वाले सिद्धांत का भी उल्लेख किया और कहा कि प्रतीक्षा सूची का आकार अधिसूचित रिक्तियों के अनुपात में उचित होना चाहिए ताकि उसी भर्ती वर्ष या अगले वर्ष में उत्पन्न होने वाली रिक्तियों को भरा जा सके।
प्रतिवादी ने स्वीकार किया कि 2000 के बाद अगला विज्ञापन 2008 में निकला, जिसमें 29 रिक्तियां थीं। इससे यह स्पष्ट हुआ कि 2000 से 2008 के बीच नई रिक्तियां उत्पन्न हुई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“हम पाते हैं कि बिल्कुल यही स्थिति नसीम अहमद मामले में भी थी और एकल पीठ तथा डिवीजन बेंच ने विज्ञापन में रिक्तियों को बढ़ाने या घटाने के स्पष्ट उल्लेख को नज़रअंदाज़ करते हुए गलत निर्णय दिया।”
अंतिम आदेश
कोर्ट ने 17 वर्षों से लंबित इस विवाद में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए निम्न निर्देश दिए:
- जो अपीलकर्ता अभी सेवानिवृत्ति आयु तक नहीं पहुंचे हैं, उन्हें अंबेडकरनगर ज़िला न्यायालय की मौजूदा चतुर्थ श्रेणी रिक्तियों में समायोजित किया जाए। यदि रिक्तियां उपलब्ध नहीं हैं तो उन्हें अधिशेष पदों (supernumerary posts) पर नियुक्त कर भविष्य की रिक्तियों में समायोजित किया जाए।
- जो अपीलकर्ता सेवानिवृत्ति आयु पार कर चुके हैं, उन्हें न्यूनतम पेंशन दी जाए, भले ही उन्होंने केवल आठ वर्ष सेवा की हो।
- पुनर्नियुक्त कर्मचारियों को वरिष्ठता का लाभ नहीं मिलेगा, लेकिन उनकी आठ वर्ष की पूर्व सेवा पेंशन निर्धारण के लिए गिनी जाएगी।
- 17 वर्षों की वह अवधि, जब वे सेवा में नहीं थे, किसी भी प्रयोजन—जैसे काल्पनिक सेवा या पेंशन गणना—में नहीं गिनी जाएगी।
- ये निर्देश केवल इन चार अपीलकर्ताओं तक सीमित रहेंगे और “पूर्वनिर्णय के रूप में लागू नहीं होंगे।”
अपील को इन निर्देशों के साथ निपटा दिया गया।