सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों की मार्केटिंग प्रथाओं को नियंत्रित करने वाले मानकों के प्रभावी प्रवर्तन पर चिंता व्यक्त की, जब वह दवाओं के अनैतिक प्रचार पर अंकुश लगाने के लिए एक समान संहिता लागू करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा था।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने टिप्पणी की कि यद्यपि वैधानिक व्यवस्था मौजूद है, चुनौती उसके वास्तविक क्रियान्वयन में है। न्यायमूर्ति नाथ ने कहा, “कठिनाई यह है कि व्यवस्था तो मौजूद है, लेकिन क्या उसका सही रूप से क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं।”
यह टिप्पणी तब आई जब केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि चूंकि यूनिफॉर्म कोड फ़ॉर फ़ार्मास्यूटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिसेज़ (UCPMP) 2024 पहले से लागू है, इसलिए याचिका निरर्थक हो गई है। उन्होंने कोड का बचाव करते हुए कहा, “यह एक बाघ है, जिसके पास पूरी ताकत है।”

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने हालांकि कोड की प्रभावशीलता पर चिंता जताई। न्यायमूर्ति मेहता ने भी संदेह व्यक्त करते हुए कहा, “यदि यह दाँतहीन बाघ है… तो इसका उद्देश्य ही क्या है?”
पीठ ने मामले की विस्तृत सुनवाई 7 अक्टूबर के लिए सूचीबद्ध करते हुए कहा कि संहिता के दायरे और उसके प्रवर्तन की गहन जांच के लिए समय की आवश्यकता है।
यह याचिका 2022 में फेडरेशन ऑफ़ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेज़ेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया द्वारा दायर की गई थी, जिसमें या तो एक बाध्यकारी वैधानिक ढांचा या अदालत द्वारा अंतरिम दिशानिर्देश जारी करने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया कि जहाँ भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002 डॉक्टरों को फ़ार्मा कंपनियों से उपहार, आतिथ्य या लाभ स्वीकार करने से रोकते हैं, वहीं कंपनियों पर कोई समान प्रतिबंध लागू नहीं है।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह असंतुलन ऐसी स्थिति पैदा करता है जिसमें डॉक्टरों को फ़ार्मा कंपनियों द्वारा प्रोत्साहित कदाचार के लिए दंडित किया जाता है, जबकि कंपनियाँ अकसर जवाबदेही से बच निकलती हैं। याचिका में चेतावनी दी गई कि उपहार, प्रायोजित यात्राएँ और आतिथ्य जैसी अनैतिक प्रचार रणनीतियाँ डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन पैटर्न को प्रभावित करती हैं, जिसके चलते अनावश्यक दवाएँ लिखी जाती हैं, अवैज्ञानिक संयोजन अपनाए जाते हैं और जन स्वास्थ्य को नुकसान पहुँच सकता है।