भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि वह तमिलनाडु सरकार से संबंधित हालिया ऐतिहासिक फैसले की समीक्षा करेगा ताकि यह जांचा जा सके कि क्या उसमें विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति के लिए तय की गई समयसीमा केरल सरकार द्वारा उठाए गए समान मुद्दों को भी संबोधित करती है। इस मामले की सुनवाई 6 मई को निर्धारित की गई है।
न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ इस मामले की पड़ताल करेगी। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो केंद्र और राज्यपाल कार्यालय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, ने तर्क दिया कि केरल का मामला 8 अप्रैल को न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला के नेतृत्व में दिए गए फैसले में शामिल परिस्थितियों से भिन्न है। उस फैसले में राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजे गए 10 विधेयकों को रोके जाने को अवैध और त्रुटिपूर्ण ठहराते हुए खारिज कर दिया गया था और राष्ट्रपति द्वारा निर्णय के लिए तीन महीने की समयसीमा तय की गई थी।
केरल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के के वेणुगोपाल ने दलील दी कि तमिलनाडु की स्थिति से केरल की स्थिति काफी समान है, इसलिए समान न्यायिक निर्देश जरूरी हैं। वेणुगोपाल ने कहा, “गवर्नर द्वारा राष्ट्रपति को संदर्भ भेजने की समयसीमा का सवाल इस फैसले में स्पष्ट किया गया है और कोई अन्य प्रश्न नहीं उठता।”

हालांकि, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने तर्क दिया कि केरल की परिस्थितियाँ उस फैसले के दायरे में नहीं आतीं, जिसके चलते पीठ ने मामले की विस्तृत सुनवाई तय की। पीठ ने कहा, “इस मामले के कुछ तथ्यात्मक मुद्दे उस फैसले में शामिल नहीं थे, इसलिए 6 मई को इस पर आगे सुनवाई होगी।”
पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि वेणुगोपाल, भारत के मुख्य न्यायाधीश से संपर्क कर उस याचिका को भी इस मामले के साथ जोड़े जिसमें राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर सहमति न देने की चुनौती दी गई है। इस याचिका की संभावित सुनवाई 13 मई को होगी।
यह विवाद 2023 से शुरू हुआ जब तत्कालीन केरल राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को दो वर्षों तक रोके रखने को लेकर आलोचना की थी। केरल सरकार का आरोप है कि कुछ ऐसे विधेयक जो न तो केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित हैं और नीतिगत दृष्टिकोण से आमजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, उन्हें अनावश्यक रूप से रोक दिया गया है।