सुप्रीम कोर्ट ने दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित ₹50 लाख की अधिकतम सहायता सीमा को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करने के लिए सहमति दी है। यह निर्णय स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (SMA) जैसी गंभीर बीमारियों के उपचार में वित्तीय सहायता की सीमाओं को लेकर दायर याचिकाओं के परिप्रेक्ष्य में आया है। न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिंहा की अध्यक्षता वाली पीठ इस मामले की सुनवाई 13 मई से प्रारंभ करेगी।
यह मामला विशेष रूप से तब चर्चा में आया जब केरल की 24 वर्षीय सेबा पी.ए., जो SMA से पीड़ित हैं, के इलाज के लिए Risdiplam नामक अत्यंत महंगी दवा की आवश्यकता पड़ी। इस दवा की कीमत प्रति बोतल ₹6.2 लाख है। दवा निर्माता कंपनी M/s F Hoffmann-La Roche Ltd ने केरल हाईकोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में सेबा को एक वर्ष तक यह दवा निःशुल्क उपलब्ध कराने पर सहमति दी। हाईकोर्ट ने इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार को ₹18 लाख मूल्य की दवा प्रदान करने का निर्देश भी दिया, जो तय ₹50 लाख की सीमा से अधिक था।
हालांकि, फरवरी में केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने केरल हाईकोर्ट के उक्त आदेश पर रोक लगा दी। केंद्र का तर्क था कि सरकार को ₹50 लाख से अधिक की राशि उपलब्ध कराने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि SMA के इलाज की लागत ₹26 करोड़ तक हो सकती है और यह भी संकेत दिया कि Risdiplam दवा पाकिस्तान और चीन जैसे देशों में अपेक्षाकृत कम कीमत पर उपलब्ध है।

हालिया सुनवाई के दौरान, प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने दवा निर्माता कंपनी द्वारा प्रस्तुत गोपनीय मूल्य विवरणों की समीक्षा की और यह भी स्वीकार किया कि ‘नेशनल रेयर डिजीजेस कमेटी’ भारत में कम मूल्य पर दवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है। हालांकि, प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने मूल्य निर्धारण नीति की जटिलताओं को रेखांकित करते हुए इसके संभावित अंतरराष्ट्रीय प्रभावों की ओर संकेत किया।
सेबा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद ग्रोवर ने दलील दी कि भारत के पड़ोसी देशों में उक्त दवा की कीमत बहुत कम है, और यह प्रश्न उठाया कि भारत में ऐसी मूल्य कटौती क्यों संभव नहीं हो पा रही है। इस पर पीठ ने सरकार की मूल्य निर्धारण नीति की समीक्षा के प्रति तत्परता दिखाई, किन्तु यह भी स्पष्ट किया कि इसके वैश्विक प्रभावों को भी ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।
केंद्र सरकार की वर्तमान नीति के अनुसार, प्रत्येक ज़रूरतमंद रोगी को अधिकतम ₹50 लाख तक की सहायता दी जा सकती है। हालांकि, इस सीमा को लेकर यह सवाल खड़ा हुआ है कि क्या इतनी राशि दुर्लभ बीमारियों जैसे महंगे इलाजों के लिए पर्याप्त है। विशेषकर तब जब कई उपचार की लागत करोड़ों रुपये में होती है।
सरकार ने अपनी नीति का बचाव करते हुए यह तर्क दिया है कि यदि इस सीमा से परे जाकर सहायता दी गई तो इससे ऐसी मिसाल बन सकती है, जिससे भविष्य में देशभर में हजारों मरीजों के लिए वित्तीय रूप से अस्थिर मांग उत्पन्न हो सकती है। इसके बावजूद, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह निर्देश दिया कि सरकार मामलों की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक केस के आधार पर ₹50 लाख की सीमा में अपवाद देने की संभावना पर विचार करे।
मई में होने वाली आगामी सुनवाई में न्यायालय स्वास्थ्य क्षेत्र में वित्तीय सहायता की आर्थिक और नैतिक जटिलताओं पर व्यापक विमर्श करेगा, जो संभवतः दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित नागरिकों के लिए सरकारी सहायता नीति को नया रूप दे सकती है।