सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार: क्या मुस्लिम उत्तराधिकार मामलों में शरीयत के बजाय भारतीय उत्तराधिकार कानून अपनाया जा सकता है?

एक अहम संवैधानिक मुद्दे पर विचार करते हुए भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया है कि वह इस बात पर गौर करेगा कि क्या देश के मुस्लिम नागरिक अपनी धार्मिक पहचान बरकरार रखते हुए, पुश्तैनी संपत्तियों के बंटवारे के लिए शरीयत के स्थान पर भारत के धर्मनिरपेक्ष उत्तराधिकार कानून को चुन सकते हैं।

यह फैसला केरल के त्रिशूर निवासी नौशाद के.के. द्वारा दायर एक याचिका पर आया है, जिसमें उन्होंने अपनी इस इच्छा को रखा कि वे शरीयत के बजाय भारतीय उत्तराधिकार कानून के तहत अपने पारिवारिक संपत्ति विवादों को सुलझाना चाहते हैं, बिना इस्लाम धर्म छोड़े।

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मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने केंद्र सरकार और केरल सरकार को नोटिस जारी कर इस विषय पर विस्तृत जवाब मांगा है। कोर्ट ने इस याचिका को इस विषय से जुड़ी अन्य लंबित याचिकाओं के साथ जोड़ दिया है।

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इनमें एक याचिका सफिया पी.एम. की है, जो अलप्पुझा की निवासी हैं और ‘एक्स-मुस्लिम्स ऑफ केरल’ संगठन की महासचिव हैं। सफिया स्वयं को एक गैर-आस्तिक मानती हैं, लेकिन सांस्कृतिक रूप से इस्लाम से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने भी कोर्ट से मांग की है कि उन्हें अपनी पुश्तैनी संपत्तियों के मामले शरीयत के बजाय भारतीय कानून के तहत निपटाने की अनुमति दी जाए।

एक अन्य याचिका ‘कुरआन सुन्नत सोसायटी’ द्वारा वर्ष 2016 में दाखिल की गई थी, जो अभी भी विचाराधीन है।

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इन मामलों को एक साथ जोड़ने का सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस बात की ओर इशारा करता है कि यह मुद्दा केवल कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके व्यापक सामाजिक और संवैधानिक प्रभाव हो सकते हैं। यह निर्णय यह तय कर सकता है कि भारत में धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों और धर्मनिरपेक्ष कानूनी अधिकारों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।

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