सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम के वे प्रावधान, जो किसी दंपति को एक संतान होने की स्थिति में दूसरी संतान के लिए सरोगेसी का सहारा लेने से रोकते हैं, क्या नागरिकों के प्रजनन अधिकारों पर अनुचित प्रतिबंध हैं।
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने एक ऐसी विवाहित जोड़ी की याचिका पर विचार करने पर सहमति दी है, जो द्वितीयक बांझपन (secondary infertility) से जूझ रही है — अर्थात जब महिला पहले गर्भधारण कर चुकी हो लेकिन बाद में वह ऐसा करने में असमर्थ हो जाए।
मौजूदा कानून के तहत, यदि किसी दंपति की कोई संतान जीवित है — चाहे वह जैविक, दत्तक या सरोगेसी के माध्यम से जन्मी हो — तो उन्हें दूसरी संतान के लिए सरोगेसी की अनुमति नहीं दी जाती।
हालांकि, यदि जीवित संतान मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग है, या किसी जीवन-घातक या लाइलाज बीमारी से पीड़ित है, तो जिला चिकित्सा बोर्ड से प्रमाणपत्र प्राप्त करने और संबंधित प्राधिकरण की स्वीकृति के बाद उन्हें सरोगेसी की अनुमति मिल सकती है।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति नागरथना ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि यह प्रतिबंध “देश की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए उचित प्रतीत होता है”, हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अदालत इस प्रावधान के संवैधानिक पहलू की गहराई से जांच करेगी।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता ने तर्क दिया कि सरकार को नागरिकों के निजी जीवन और प्रजनन संबंधी विकल्पों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि प्रजनन का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अभिन्न हिस्सा है।
अधिवक्ता ने यह भी कहा कि सरोगेसी कानून और सहायक प्रजनन तकनीक (ART) कानून में ‘बांझपन’ की परिभाषा केवल प्राथमिक बांझपन तक सीमित नहीं है।
अदालत अब यह तय करेगी कि क्या यह वैधानिक रोक नागरिकों के प्रजनन स्वायत्तता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है।




