सुप्रीम कोर्ट ने मकान मालिक-किरायेदार विवाद से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि कोई भी किरायेदार, जिसने आधी सदी से अधिक समय तक मकान मालिक के साथ किरायेदारी संबंध को स्वीकार किया है, बाद में जाकर मूल मकान मालिक के स्वामित्व को बेदखली वाद में चुनौती नहीं दे सकता। न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने यह भी माना कि जिस वसीयत के आधार पर उत्तराधिकारी-मकान मालिक स्वामित्व का दावा करता है, उसका प्रोबेट आदेश “कानूनी मान्यता देता है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।”
अदालत ने तीनों निचली अदालतों के समानांतर निर्णयों को निरस्त करते हुए मकान मालिक के पक्ष में बेदखली का आदेश दिया, जिन्होंने वसीयत और अपने पारिवारिक व्यवसाय के विस्तार की bona fide आवश्यकता के आधार पर कब्ज़ा मांगा था।
मामला पृष्ठभूमि
विवादित संपत्ति एक दुकान थी, जिसे 1953 में रामजी दास ने किशन लाल (उत्तरदाताओं के पिता) को किराए पर दी थी। किशन लाल की मृत्यु के बाद उनके बेटे उसी दुकान में किराना व्यवसाय चलाते रहे।

अपीलकर्ता ज्योति शर्मा (वादी) मूल मकान मालिक रामजी दास की पुत्रवधू हैं। उन्होंने दावा किया कि 12 मई 1999 को रामजी दास ने वसीयत के जरिए दुकान उनके नाम कर दी थी। रामजी दास का निधन 7 अगस्त 1999 को हो गया। जनवरी 2000 से बकाया किराया वसूलने और bona fide आवश्यकता के आधार पर बेदखली के लिए वाद दायर किया गया, जिसमें उन्होंने अपने पति के पास वाली मिठाई व नमकीन की दुकान में शामिल होकर उसे विवादित परिसर तक विस्तार देने की योजना बताई।
पक्षकारों के तर्क
किरायेदारों ने मकान मालिक के दावे को कई आधारों पर चुनौती दी। उन्होंने कहा कि संपत्ति रामजी दास की नहीं, बल्कि उनके चाचा सुआ लाल की थी। वसीयत को भी फर्जी बताया और कहा कि रामजी दास की मृत्यु के बाद वादी के पक्ष में किरायेदारी का औपचारिक हस्तांतरण (attornment) नहीं हुआ। हालांकि, उन्होंने यह स्वीकार किया कि प्रारंभिक किरायानामा रामजी दास ने ही किया था और किराया उन्हें तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र (वादी के पति) को दिया जाता रहा।
वादी ने कहा कि वसीयत के बाद उनके पति उनकी ओर से किराया वसूलते रहे। उन्होंने यह भी बताया कि पंजीकृत नोटिस द्वारा किरायेदारों को वसीयत और उनके स्वामित्व की जानकारी दी गई थी।
निचली अदालतों के निष्कर्ष
ट्रायल कोर्ट ने वादी की स्वामित्व और मकान मालिक-किरायेदार संबंध साबित करने में विफलता बताते हुए वाद खारिज कर दिया। वसीयत पर हस्ताक्षर की तुलना के आधार पर शक जताया और attornment की कमी बताई। प्रथम अपीलीय अदालत और बाद में उच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय को बरकरार रखा, जिसके बाद वादी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों और कानूनी सिद्धांतों का विस्तृत परीक्षण कर निचली अदालतों के निर्णय पलट दिए।
मकान मालिक के स्वामित्व को चुनौती पर — अदालत ने कहा कि किरायेदारों का रामजी दास के स्वामित्व को चुनौती देना अनुचित है। 1953 के त्यागपत्र (Ex. P-18) के आधार पर रामजी दास ने संपत्ति किराए पर दी थी और “अधिक से अधिक आधी सदी तक किरायेदारों ने उन्हें किराया दिया, इसलिए इस स्थिति में उनके स्वामित्व पर विवाद नहीं उठाया जा सकता।”
वसीयत और प्रोबेट की वैधता पर — अदालत ने ट्रायल कोर्ट के वसीयत पर संदेह जताने के कारणों को असंगत पाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल इस आधार पर कि वसीयत में पत्नी के लिए कुछ नहीं छोड़ा गया, वसीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता।
महत्वपूर्ण रूप से, 2018 में वादी को वसीयत का प्रोबेट आदेश मिला, जिसे उन्होंने उच्च न्यायालय में पेश करने की कोशिश की, परंतु हाई कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “जब प्रोबेट आदेश प्रस्तुत किया गया, जो अनिवार्य नहीं है, तो वसीयत के जरिए वादी का दावा कानूनी मान्यता प्राप्त कर लेता है जिसे उच्च न्यायालय नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता था।” अदालत ने दोहराया कि बेदखली वाद में स्वामित्व का प्रमाण उतनी कठोरता से नहीं देखा जाता जितना स्वामित्व की घोषणा के वाद में।
Attornment और bona fide आवश्यकता पर — अदालत ने पंजीकृत नोटिस (Ex. P-9) को महत्वपूर्ण माना, जिसमें किरायेदारों को वसीयत की सूचना दी गई थी। bona fide आवश्यकता भी साबित हुई, क्योंकि पास के पारिवारिक व्यवसाय और विस्तार की योजना पर कोई विवाद नहीं था।
अंतिम आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए वादी-मकान मालिक के पक्ष में डिक्री पारित की। जनवरी 2000 से किराया बकाया चुकाने और कब्ज़ा सौंपने का आदेश दिया गया।
किरायेदारी की लंबी अवधि को देखते हुए किरायेदारों को छह माह का समय दिया गया, बशर्ते वे दो सप्ताह में ट्रायल कोर्ट में हलफ़नामा दाखिल करें जिसमें एक माह में समस्त बकाया किराया चुकाने और छह माह में खाली कब्ज़ा सौंपने की प्रतिबद्धता हो। हलफ़नामा दाखिल न करने पर मकान मालिक तुरंत बेदखली के हकदार होंगे।