सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को आदेश दिया कि पश्चिम बंगाल की ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) सूची से जुड़े मामले में कोलकाता हाईकोर्ट में अब आगे की कोई कार्यवाही नहीं होगी।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने यह निर्देश उस समय दिया जब वह दस याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें से एक पश्चिम बंगाल सरकार की थी। इन याचिकाओं में कोलकाता हाईकोर्ट के 22 मई 2024 के उस फैसले को चुनौती दी गई है, जिसमें राज्य में 2010 के बाद दी गई कई जातियों की ओबीसी स्थिति को रद्द कर दिया गया था।
मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई के दौरान कहा, “जब मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है, तब हाईकोर्ट इस पर कैसे आगे बढ़ सकता है?”
पीठ ने स्पष्ट किया, “अगले आदेश तक कोलकाता हाईकोर्ट में इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं होगी।” अदालत ने इन याचिकाओं को चार सप्ताह बाद फिर से सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।
22 मई 2024 को कोलकाता हाईकोर्ट ने 2010 से दी गई कई जातियों की ओबीसी मान्यता को अवैध ठहराया था। अदालत ने कहा था कि “धर्म ही इन समुदायों को ओबीसी घोषित करने का एकमात्र आधार प्रतीत होता है।”
हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि “77 मुस्लिम वर्गों को पिछड़ा घोषित करना मुस्लिम समुदाय के प्रति एक अपमान जैसा है।”
हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि जिन लोगों ने पहले से इस आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी पाई है या किसी चयन प्रक्रिया में सफल हुए हैं, उनकी सेवाएं प्रभावित नहीं होंगी।
यह फैसला उन याचिकाओं पर आया था जिनमें 2010 और 2012 में पारित राज्य सरकार के फैसलों को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत ‘पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अन्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को छोड़कर) अधिनियम, 2012’ के अंतर्गत नई जातियों को ओबीसी सूची में शामिल किया गया था।
राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अदालत को बताया कि हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई 18 नवंबर को तय की थी। उन्होंने कहा कि राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने जातीय पिछड़ेपन की समीक्षा फिर से शुरू की है और यह प्रक्रिया तीन माह में पूरी होनी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले 5 अगस्त 2024 को राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि वह नव-शामिल समुदायों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन तथा सरकारी नौकरियों में उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व से संबंधित मात्रात्मक आंकड़े (quantifiable data) प्रस्तुत करे, साथ ही यह भी बताए कि इन समुदायों को शामिल करने से पहले क्या कोई परामर्श या अध्ययन हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट के इस नवीनतम आदेश के साथ, हाईकोर्ट की आगे की कार्यवाही पर फिलहाल रोक लग गई है और अब शीर्ष अदालत ही इस मामले में अंतिम निर्णय देगी कि 2010 के बाद राज्य द्वारा दी गई ओबीसी मान्यता संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं।




